राजा पृथु की कथा का रहस्यात्मक विवेचन

- राधा गुप्ता

कथा का संक्षिप्त स्वरूप

राजा अङ्ग और उनकी पत्नी सुनीथा से वेन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । वेन के दुराचारों से पीडित होकर राजा अङ्ग एक दिन चुपचाप राजमहल से निकल गए और ढूंढने पर भी नहीं मिले । रिक्त सिंहासन पर वेन को बैठाया गया परन्तु वेन के अधर्मयुक्त आचरण से क्रुद्ध हुए ऋषियों ने एक दिन अपनी हुंकार मात्र से वेन को मार डाला । सुनीथा वेन के शव की रक्षा करती रही । सिंहासन फिर रिक्त हो गया था, अतः शत्रुओं के आक्रमण से नगर की रक्षा करने के लिए ऋषियों ने मृत वेन के ऊरु/उरु का मन्थन किया जिससे एक काला बौना पुरुष प्रकट हुआ । इस पुरुष ने वेन के सभी पापों को अपने ऊपर ले लिया । तदुपरान्त ऋषियों ने मृत वेन के दक्षिण कर का मन्थन किया, जिससे पृथु का आविर्भाव हुआ । पृथु श्री हरि के अंशावतार ही थे, अतः ऋषियों ने राजा के पद पर पृथु का अभिषेक कर दिया । राज्याभिषेक के अवसर पर सभी देवताओं ने राजा पृथु को नाना उपहार समर्पित किए तथा पृथु के मना करने पर भी मुनियों के कहने से बन्दीजनों ने पृथु का गुणगान किया ।

          पृथु के राज्याधिरूढ होते ही प्रजा ने राजा से क्षुधा पूर्ति हेतु अन्न की याचना की । पृथु अन्नाभाव का कारण समझ गए और अन्न को अपने गर्भ में ही छिपा लेने वाली पृथ्वी पर अत्यन्त क्रुद्ध हुए । भयभीत हुई पृथ्वी ने राजा से अभय की याचना की और अन्न को छिपाने का समस्त हेतु बतलाते हुए अन्न - प्राप्ति हेतु राजा से समुचित उपाय का अवलम्बन लेने की प्रार्थना की । पृथ्वी ने गौ का रूप धारण किया और पृथ्वी द्वारा निर्दिष्ट उपाय का आश्रय लेकर राजा पृथु ने स्वायम्भुव मनु को बछडा बनाकर पृथ्वी रूपी गाय से अपने ही हाथ में समस्त धान्य रूपी दुग्ध को दुह लिया । बाद में अन्य विज्ञजनों ने भी पृथु के आधीन हुई वसुन्धरा रूप गौ से अपने - अपने वत्स बनाकर अपने - अपने पात्रों में अभीष्ट दुग्ध का दोहन किया । इसके साथ ही पृथ्वी की इच्छानुसार राजा पृथु ने उसे समतल कर दिया, जिससे इन्द्र का बरसाया हुआ जल बहने न पाए और पृथ्वी आर्द्र बनी रहे । पृथु का पृथ्वी के प्रति पुत्रीवत् स्नेह हो गया ।

          पृथु को अर्चि नामक पत्नी से विजिताश्व, हर्यक्ष, धूम्रकेश, वृक तथा द्रविण नामक पांच पुत्र प्राप्त हुए । विजिताश्व की सहायता से पृथु अपने सौवें अश्वमेध यज्ञ को भी सम्पन्न करने में समर्थ थे । विजिताश्व ने इन्द्र से अन्तर्धान होने की शक्ति प्राप्त की थी, इसलिए उन्हें अन्तर्धान भी कहते थे । अन्तर्धान को शिखण्डिनी नामक पत्नी से पावक, पवमान तथा शुचि नामक तीन पुत्र तथा नभस्वती नाम की पत्नी से हविर्धान नामक एक पुत्र प्राप्त हुआ । हविर्धान के पुत्र बर्हिषद् थे, जो प्राचीनबर्हि नाम से प्रसिद्ध हुए । प्राचीनबर्हि ने समुद्र - कन्या शतद्रुति से विवाह किया जिससे उन्हें प्रचेता नामक दस पुत्र प्राप्त हुए । पिता ने प्रचेताओं को सन्तान उत्पन्न करने की आज्ञा दी । अतः प्रचेताओं ने सन्तान उत्पत्ति हेतु तप करने के लिए समुद्र में प्रवेश किया । तभी उन्हें महादेव के दर्शन हुए, जिनसे प्राप्त रुद्रस्तोत्र द्वारा प्रचेताओं ने श्रीहरि का सान्निध्य प्राप्त कर लिया ।

          श्रीहरि प्रचेताओं को कण्डु ऋषि तथा प्रम्लोचा अप्सरा से उत्पन्न हुई एवं वृक्षों द्वारा पालित - पोषित मारिषा नामक कन्या से विवाह करके सन्तान उत्पन्न करने का परामर्श देकर परम धाम को चले गए । प्रचेताओं ने समुद्र के जल से बाहर निकलकर देखा कि पृथ्वी ऊंचे - ऊंचे वृक्षों से ढंक गई है, अतः उन्होंने क्रोधपूर्वक वृक्षों को भस्म करना प्रारम्भ कर दिया परन्तु ब्रह्मा जी के समझाने से वे शान्त हो गए । ब्रह्मा जी के कहने पर वृक्षों ने मारिषा नामक कन्या प्रचेताओं को समर्पित कर दी । मारिषा से विवाह करके प्रचेताओं ने दक्ष नामक पुत्र को उत्पन्न किया । ये दक्ष ब्रह्मा जी के वही पुत्र थे जिन्होंने पहले महादेव जी की अवज्ञा करने के कारण अपना शरीर त्यागा था ।

कथा का निहितार्थ

          कथा का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक मनुष्य के पास जो मन नामक तत्त्व है, वह मन जन्मों - जन्मों में ले जाई गई एक प्रबल मान्यता से युक्त हो गया है । यह प्रबल मान्यता है - स्वयं को देह - स्वरूप मान लेने की, अर्थात् मनुष्य यह मानने लगा है कि मैं देह हूं । मन में उपर्युक्त मान्यता के संयुक्त हो जाने से भ्रमपूर्ण देह दृष्टि का निर्माण हो गया है , जो समस्त अनर्थों का मूल है । इस देह दृष्टि के कारण ही सर्वप्रथम यह संकल्प अथवा विचार उत्पन्न होता है कि मैं सबसे अलग हूं, कुछ लोग मेरे अपने हैं तथा शेष मेरे अपने नहीं हैं । इन विचारों के कारण ममता, आसक्ति, राग, द्वेष आदि भावों का निर्माण होता है । फिर ये ही भाव नकारात्मक तथा स्वार्थपरक दृष्टिकोण को निर्मित करते हैं । स्वार्थपरक दृष्टिकोण के द्वारा मनुष्य स्वहित साधक कर्मों में प्रवृत्त होता है । कर्मों की बार - बार आवृत्ति आदत या स्वभाव में बदल जाती है और तब मनुष्य के हाथ में आता है - दुःख जो उसका भाग्य ही है क्योंकि उसी ने उपर्युक्त वर्णित शृङ्खला के रूप में स्वयं उसका निर्माण किया है । इस विस्तृत शृङ्खला को हम निम्न रूप में भी प्रकट कर सकते हैं -

 

पूर्व जन्मों में संचित अनुभव + वर्तमान का सूचनापरक ज्ञान

 

 

 


मान्यता

 

 


देहदृष्टि

 

 

 


विचार या संकल्प

 

 

 


भाव

 

 

 


दृष्टिकोण

 

 

 


कर्म

 

 

 


स्वभाव या आदत

 

 

 


भाग्य

           तात्पर्य यह है कि जन्मों - जन्मों में ले जाई गई एक भ्रमपूर्ण मान्यता मन से जुडकर शृङ्खलाबद्ध रूप में दु:खों को उत्पन्न करती है । इन दु:खों की समाप्ति तब तक नहीं होती जब तक दु:खों से त्रस्त हुई मनुष्य की स्वयं की चेतना ही ज्ञानयुक्त होकर एक दिन यह हुंकार नहीं भरती कि मैं देह नहीं हूं, मैं चैतन्यस्वरूप हूं, मैं अमृत - पुत्र हूं । जिस दिन मनुष्य की चेतना यह सिंहनाद करती है कि मैं शरीर नहीं हूं, मैं तो चैतन्य हूं - उसी दिन मनुष्य की भ्रमपूर्ण देह - दृष्टि का नाश होता है । परन्तु स्वयं के भीतर स्वयं ही यह सिंहनाद पैदा होना चाहिए । मात्र दूसरों के जगाने से मनुष्य नहीं जाग सकता, देह - दृष्टि का नाश नहीं होता । स्वयं को बदलने(आत्मपरिवर्तन) का यह पहला चरण है ।

          परन्तु आश्चर्य की बात यह है कि जन्मों - जन्मों में संगृहीत हुई यह प्रबल मान्यता कि मैं देह हूं, ज्ञान चेतना के हुंकार से नाश को प्राप्त हुई इस देह - दृष्टि के मृत स्वरूप की रक्षा करती रहती है, अर्थात् मन के ऊपरी धरातल से तो देह - दृष्टि का नाश हो जाता है, परन्तु मन की गहरी पर्तों में वह विद्यमान रहती है । अतः यह अनिवार्य हो जाता है कि मन के ऊपरी धरातल पर नाश को प्राप्त हुई देह - दृष्टि के ऊरु/उरु का मन्थन किया जाए । उरु का अर्थ है - विस्तार । जैसा कि पूर्व वर्णित तालिका से स्पष्ट है - देह दृष्टि का विस्तार संकल्प, भाव, दृष्टिकोण, कर्म, आदत तथा भाग्य के रूप में हो रहा है । इसी विस्तार का हमें मन्थन करना है । संकल्प के स्तर पर यह सतत् ध्यान रखना है कि हमारे संकल्प अथवा विचार देह - केन्द्रित हैं अथवा आत्म - केन्द्रित । फिर भाव के स्तर पर निरन्तर परखते रहना है कि वहां प्रेम के भाव हैं अथवा राग - द्वेष आदि के । अपने दृष्टिकोण की परीक्षा करनी है कि वह स्वार्थपरक है अथवा परमार्थपरक । कर्म की जांच करनी है कि वे दूसरों को दुःख देने वाले हैं अथवा सुख देने वाले । आदत को भी ध्यान से देखते रहना है कि उसकी परिपक्वता गलत दिशा में है अथवा सही दिशा में । इस प्रकार इस सारे विस्तार को मथने पर ही हमारे भीतर जडें जमा चुकी देह - दृष्टि से उत्पन्न मलिनता जो अत्यन्त बौनी अर्थात् तुच्छ है - हमारे भीतर से बाहर निकल सकेगी । मलिनता थी तो उरु, लेकिन मन्थन के बाद निकली बौनी ही । स्वयं को बदलने (आत्म - परिवर्तन) की साधना का यह दूसरा चरण है ।

          परन्तु देह - दृष्टि से उत्पन्न मलिनता को बाहर कर देना भी पर्याप्त नहीं होगा क्योंकि मलिनता को बाहर कर देने पर जो खाली स्थान बनता है, उसे सात्विकता से भर देना भी आवश्यक है । इस खाली स्थान को कुशलता का मन्थन करके भर देना है । कुशलता के मन्थन का अभिप्राय है - पूर्व वर्णित तालिका में देह - दृष्टि के स्थान पर आत्म - दृष्टि को आरूढ कर देना है तथा फिर अपने संकल्प को समत्व के संकल्प से, भाव को प्रेम, सहयोग के भावों से, दृष्टिकोण को परमार्थपरक दृष्टिकोण से तथा कर्म को समग्र हित साधक कर्मों से युक्त कर देना है । तब धीरे - धीरे यह शृङ्खला हमारे सु-स्वभाव(आदत) को निर्मित करके सुखों का निर्माण कर देगी । स्वयं को बदलने(आत्म - परिवर्तन) की साधना का यह तीसरा चरण है ।

          इन तीन चरणों को पार करके ही पृथु चेतना का आविर्भाव होता है । पृथु का अर्थ है - विस्तार । अतः विस्तारयुक्त चेतना का अभिप्राय भी इस उपर्युक्त वर्णित आविर्भाव प्रक्रिया से ही अत्यन्त सुस्पष्ट हो जाता है । संक्षेप में, पृथु चेतना वह चेतना है जब मनुष्य के विचार, भाव, दृष्टिकोण, कर्म तथा स्वभाव प्रभृति सभी क्षेत्रों में से देह - केन्द्रित - दृष्टि के कारण उत्पन्न हुई स्वार्थपरक मलिनता सर्वथा निकल जाती है और उसके स्थान पर आत्म - केन्द्रित - दृष्टि से उत्पन्न हुई परमार्थ - परक - सात्विकता आरूढ हो जाती है । यह ध्यान देने योग्य है कि साधना के प्रथम चरण में मन्थन तो विस्तार, उरु, ऊरु का किया गया था, लेकिन प्राप्त हुआ छोटा, बौना %E