मत्स्य अवतार कथा के माध्यम से आत्म – ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया एवं आत्मा – परमात्मा के योग की आवश्यकता का निरूपण
- राधा गुप्ता
श्रीमद् भागवत महापुराण के अष्टम स्कन्ध के २४वें अध्याय में मत्स्य अवतार कथा का वर्णन किया गया है । कथा का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है –
कथा का संक्षिप्त स्वरूप
पिछले कल्प के अन्त में ब्रह्मा जी के सो जाने के कारण भूलोक आदि सारे लोक जब प्रलय – समुद्र में डूब गए, तब वेद ब्रह्मा जी के मुख से निकल पडे और पास ही रहने वाले हयग्रीव नामक बली दैत्य ने उन्हें योगबल से चुरा लिया। भगवान् ने हयग्रीव की यह चेष्टा जान ली और मत्स्य अवतार ग्रहण करके हयग्रीव को मारकर वेद ब्रह्मा जी को लौटा दिए ।
उस समय द्रविड देश में सत्यव्रत नाम के एक उदार एवं भगवत्परायण राजर्षि केवल जल पीकर तपस्या कर रहे थे । एक दिन कृतमाला नदी में जल से तर्पण करते हुए उनकी अञ्जलि में एक छोटी सी मछली आ गई । राजा ने उस मछली को जल के साथ ही फिर से नदी में छोड दिया परन्तु जलजन्तुओं से रक्षा हेतु मछली द्वारा प्रार्थना किए जाने पर राजा ने मछली की रक्षा का मन ही मन संकल्प किया और मछली को कमण्डलु में रखकर आश्रम पर ले आए । एक ही रात में वह मछली कमण्डलु में इतनी बडी हो गई कि उसने राजा से सुखपूर्वक रहने के लिए बडे स्थान की प्रार्थना की । राजा ने मछली को कमण्डलु से निकालकर एक मटके में रख दिया परन्तु वहां भी वह मछली इतनी बढ गई कि उसके पुनः प्रार्थना करने पर राजा ने उसे उठाकर एक सरोवर में डाल दिया । सरोवर में भी मछली ने एक महामत्स्य का आकार धारण कर लिया और किसी अगाध सरोवर में रखने के लिए राजा से प्रार्थना की । राजा सत्यव्रत उस महामत्स्य को कईं अटूट जल वाले सरोवरों में ले गए, परन्तु जितना बडा सरोवर होता, उतना ही बडा आकार वह धारण कर लेता । अन्त में उन्होंने उस लीलामत्स्य को समुद्र में छोड दिया परन्तु समुद्र में छोडते समय मत्स्य भगवान् ने कहा कि हे राजन्, समुद्र में बडे – बडे बली मगर रहते हैं, वे मुझे खा जाएंगे, इसलिए मुझे समुद्र के जल में मत छोडिए ।
मत्स्य भगवान् की यह वाणी सुनकर सत्यव्रत महामुग्ध हो गए और उन्होंने जीवों पर अनुग्रह करने के लिए मत्स्य रूप धारण करने वाले भगवान् की स्तुति की । मत्स्य भगवान् ने सत्यव्रत को निर्देश दिया कि आज से सातवें दिन जब तीनों लोक प्रलयकाल की जलराशि में डूबने लगेंगे, तब मेरी ही प्रेरणा से तुम्हारे पास एक बडी नौका आएगी । उस समय तुम समस्त ओषधियों तथा छोटे – बडे बीजों को लेकर सप्तर्षियों के साथ उस नौका पर आरूढ हो जाना और सप्तर्षियों की दिव्य ज्योति के सहारे बिना किसी विकलता के प्रलय – समुद्र में विचरण करना । तत्पश्चात् प्रचण्ड आँधी चलने के कारण जब नाव डगमगाने लगेगी, तब इसी महामत्स्य रूप में मैं तुम्हारे पास आऊँगा और तुम वासुकि नाग के द्वारा अपनी नौका को मेरे शृङ्ग से बांध देना । जब तक ब्रह्मा जी की रात रहेगी, तब तक मैं नौका को खींचता हुआ समुद्र में विचरण करूंगा और तुम्हें परब्रह्म का उपदेश दूंगा ।
राजा सत्यव्रत को यह आदेश देकर मत्स्य भगवान् अन्तर्धान हो गए और राजा ने भी भगवान् के निर्देशानुसार वह समय आने पर सब कृत्य यथाविधि सम्पन्न किए । अन्त में मत्स्य भगवान् ने राजा को आत्म तत्त्व का उपदेश दिया । राजा सत्यव्रत ही मत्स्य भगवान् की कृपा से ज्ञान और विज्ञान से संयुक्त होकर नए कल्प में वैवस्वत मनु हो गए ।
कथा की प्रतीकात्मकता
१- कल्प का अन्त और प्रलय का समुद्र आत्म – चैतन्य की स्थिति को इंगित करते हैं । अपने मूल स्वरूप – आत्मस्वरूप से हटकर देहस्वरूप में रहना सृष्टि है तथा देहस्वरूप से हटकर पुनः अपने मूल स्वरूप में लौट जाना प्रलय है । सृष्टि परिधि है तो प्रलय केन्द्र ।
२- आत्म – चैतन्य की स्थिति में अर्थात् आत्म केन्द्रित हो जाने पर मन स्थिर और शान्त (अन्तर्मौन) हो जाता है । इसे ही ब्रह्मा जी का सोना कहकर इंगित किया गया है ।
३- मन के स्थिर और शान्त हो जाने पर अन्तर्निहित ज्ञान प्रकट हो जाता है । इसे निद्रायुक्त ब्रह्मा जी के मुख से वेद का गिरना कहकर इंगित किया गया है ।
४- आत्म स्मृति में स्थित होने पर देह स्मृति तिरोहित हो जाती है । इसे कथा में भूः, भुवादि लोकों का प्रलय समुद्र में डूबना कहा गया है ।
५- हयग्रीव असुर ज्ञान के अभिमान का सूचक है । हयग्रीव शब्द में हय शब्द हर(हृ धातु से निष्पन्न) का प्रच्छन्न रूप प्रतीत होता है, जिसका अर्थ है – हरण करना । ग्रीव शब्द ज्ञान अर्थ वाली गृ धातु से बना है । अतः हयग्रीव (हरग्रीव ) का अर्थ हुआ – ज्ञान का हरण करने वाला अर्थात् ज्ञानाभिमानी ।
६- सत्यव्रत (सत्य – व्रत) सत्य के प्रति निष्ठायुक्त जीवात्मा(मनुष्य ) का प्रतीक है ।
७- द्रविड शब्द मूल रूप में द्रविण है जिसका अर्थ है – धन, सम्पत्ति, सामर्थ्य, शक्ति आदि । द्रविड देश अद्भुत सामर्थ्य से युक्त मनुष्य शरीर को इंगित करता है, जिसमें सत्यनिष्ठ जीवात्मा(सत्यव्रत ) का वास है ।
८- कृतमाला (कृत – माला) नदी अपने ही कर्मों के फलस्वरूप घटित घटनाओं की शृङ्खला को इंगित करती है ।
९ – कृतमाला नदी में जल से तर्पण करने का अर्थ है – घटनाओं के सतत् प्रवाह से युक्त जीवन को सहज रूप से जीते हुए अपने गुणों का संवर्धन करना ।
१०- मत्स्य शब्द मद् और स्य नामक दो शब्दों के मेल से बना है । मद् एक सर्वनाम है जिसका अर्थ है – मैं से सम्बन्धित और स्यम् का अर्थ है – चिन्तन । अतः मत्स्य का अर्थ हुआ – मैं से सम्बन्धित चिन्तन अर्थात् मैं एक आत्मा हूं – ऐसा आत्मचिन्तन ।
११- जल में तर्पण करते हुए अञ्जलि में मत्स्य के आ जाने का अर्थ है – स्वगुणों को पुष्ट करते हुए आत्म – चिन्तन का जाग्रत हो जाना अर्थात् इस चिन्तन का जाग्रत हो जाना कि मैं देहमात्र नहीं, अपितु देह को चलाने वाला आत्मा हूं ।
१२- मत्स्य का शनैः – शनैः बडा हो जाना आत्म – चिन्तन के विस्तार को सूचित करता है। सर्वप्रथम मनुष्य इस ज्ञान से युक्त होता है कि मैं मात्र एक शरीर नहीं, अपितु शरीर को चलाने वाली एक शक्ति( आत्मा) हूं । इसी शक्ति से मैं मन के द्वारा संकल्पों की रचना करता हूं, बुद्धि के द्वारा निर्णय करता हूं, ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से देखता हूं, सुनता हूं, चखता हूं, सूंघता हूं, स्पर्श करता हूं तथा कर्मेन्द्रियों के द्वारा जाता हूं, बोलता हूं आदि । यही शक्ति मेरे स्थूल शरीर में कार्यरत सभी जीवनदायिनी प्रणालियों को चला रही है । मेरे शरीर का प्रत्येक कोष इसी शक्ति से अनुप्राणित है । जैसे मैं एक शुद्ध, शान्तस्वरूप आत्मा हूं, उसी प्रकार अन्य मनुष्य भी मेरे ही समान शुद्ध शान्तस्वरूप आत्मा ही हैं । इसी प्रकार के आत्म – चिन्तन के विस्तार को कथा में मत्स्य का कमण्डलु, मटके, सरोवर तथा समुद्र में रहना और बडा हो जाना कहकर इंगित किया गया है ।
१३- प्रबल देहचेतना और इस देह चेतना से सम्बन्ध रखने वाले संकल्पों को समुद्र में रहने वाले बलवान् मगरमच्छ कहा गया है जो प्राथमिक स्तर पर विकसित हुए आत्म – ज्ञान को खा जाने में समर्थ हैं ।
१४ – सातवां दिन बुद्धि नामक सातवें स्तर को इंगित करता है ।
१५ – नौका आत्म – ज्ञान का प्रतीक है । आत्म चैतन्य में स्थित होने पर अन्तर्निहित ज्ञान स्वतः प्रकट हो जाता है । इसे ही कथा में भगवान् की प्रेरणा से नौका का स्वतः उपस्थित हो जाना कहा गया है ।
१६- सप्तर्षियों की दिव्य ज्योति का अर्थ है – पांचों ज्ञानेन्द्रियों, मन तथा बुद्धि का दिव्य हो जाना ।
१७- ओषधि शब्द ओषं – दधाति से बना है । ओषं का अर्थ है – उषा अर्थात् चेतना के जागरण से उत्पन्न तथा दधाति का अर्थ है – धारण करना । अतः ओषधि शब्द का अर्थ है – मनुष्य के प्रेम, करुणा आदि ऐसे गुण जो चेतना के जागरण से उत्पन्न हुए हैं और ओषधि के समान कल्याणकारी होते हैं ।
१८- बीज शब्द अवचेतन मन अर्थात् चित्त में पडे हुए संस्कारों को इंगित करता है ।
१९- मत्स्य शृङ्ग शब्द में मत्स्य का अर्थ है – आत्म चिन्तन और शृङ्ग का अर्थ है – चोटी, शिखर अर्थात् सर्वोच्च स्थान । अतः मत्स्य शृङ्ग शब्द का अर्थ हुआ – आत्म – चिन्तन का शिखर अर्थात् परमात्म चिन्तन ।
२०- वासुकि नाग विचार, संकल्प अथवा भाव का वाचक है । अतः वासुकि नाग रूपी रस्सी की सहायता से नौका को मत्स्य के शृङ्ग से बांधने का अर्थ है – संकल्प अथवा भाव के सहारे आत्मा को परमात्मा से संयुक्त कर देना ।
कथा का अभिप्राय
कथा के अभिप्राय को सुगमता से समझने के लिए उसे दो भागों में विभाजित कर लेना उपयोगी होगा ।
प्रथम भाग में ब्रह्मा जी की निद्रा, प्रलय – समुद्र में भूः आदि लोकों का डूबना, ब्रह्मा के मुख से वेद का निकल पडना तथा हयग्रीव असुर द्वारा वेद की चोरी आदि कथनों के माध्यम से यह समझाने का प्रयास किया गया है कि प्रत्येक आत्मा(मनुष्य) मूल रूप में ज्ञानस्वरूप ही है । देह – चेतना में अवस्थित हो जाने से मन के चञ्चल रहने के कारण उसका यह ज्ञानमय स्वरूप प्रकट नहीं हो पाता । देह – चेतना के आत्म चेतना में रूपान्तरित होने पर मन के स्थिर एवं शान्त हो जाने से आत्मा का यह ज्ञानस्वरूप प्रकट हो जाता है । परन्तु ज्ञानस्वरूपता के प्राकट्य के साथ – साथ ज्ञान का अभिमान भी प्रकट हो जाता है, जो इस ज्ञानस्वरूपता का हरण कर लेता है । अतः ज्ञान के अभिमान से मुक्ति और ज्ञानस्वरूप में अवस्थित होने के लिए आत्म – चैतन्य (मनुष्य की चेतना) को एक अति विशिष्ट स्वरूप धारण करने की आवश्यकता है । उसे ही कथा में भगवान् का मत्स्य अवतार ग्रहण करना कहा गया है ।
द्वितीय भाग में सत्यव्रत की कथा के माध्यम से यह समझाने का प्रयास किया गया है कि मनुष्य चेतना उस अति विशिष्ट स्वरूप को, जिसे मत्स्य भगवान् कहा गया है, कैसे प्राप्त करे ।
कथा में उस विशिष्ट स्वरूप को प्राप्त करने की जिस यात्रा का निर्देश किया गया है, उसके चार सोपान हैं ।
प्रथम सोपान के रूप में कथा संकेत करती है कि जो मनुष्य सत्य आचरण के प्रति निष्ठावान् है और अपने ही कर्मों के फलस्वरूप घटित घटनाओं के सतत् प्रवाह से युक्त जीवन को सहज भाव से जीता हुआ सतत् अपने गुणों का सम्वर्द्धन करता है – उसी के भीतर एक न एक दिन यह विचार उद्भूत होता है कि मैं शरीरमात्र नहीं हूं अपितु शरीर को चलाने वाला आत्मा हूं । इसे ही कथा में सत्यव्रत के हाथ में मत्स्य का आ जाना कहा गया है ।
अपनी सही पहचान के रूप में उद्भूत हुआ यह नूतन विचार पूर्व में संगृहीत हुई देह सम्बन्धी सभी मान्यताओं को छिन्न – भिन्न करने वाला होने के कारण प्रारम्भ में मनुष्य मन को उद्वेलित करता है । इसीलिए मनुष्य इस नूतन आत्म – विचार को कि मैं आत्मा हूं और मेरे समान सभी आत्मस्वरूप हैं, छोड देना चाहता है । परन्तु एक बार उद्भूत हुआ यह नूतन विचार ही मनुष्य को अन्ततः उसके वास्तविक स्वरूप में अवस्थित कराने वाला होने से अत्यन्त कल्याणकारी होता है । अतः मनुष्य चाहते हुए भी उस आत्म – चिन्तन को छोड नहीं पाता और उसकी यह आत्म – चिन्तना शनैः शनैः विस्तार को प्राप्त होने लगती है । अब शीघ्र ही मनुष्य को यह ज्ञात हो जाता है कि मैं एक आत्मा हूं, एक शक्ति हूं जो इस देह रूपी यन्त्र को चला रही है अर्थात् यही शक्ति मन – बुद्धि के माध्यम से अनेक प्रकार के संकल्पों को उत्पन्न कर रही है, यही पांचों ज्ञानेन्द्रियों तथा पांचों कर्मेन्द्रियों के माध्यम से दर्शन, श्रवण प्रभृति भिन्न – भिन्न कार्यों को करा रही है तथा यही पाञ्चभौतिक शरीर की आन्तरिक संरचना में कार्यरत सभी प्रणालियों को गति दे रही है । इसी तथ्य को कथा में मत्स्य का निरन्तर बडा होना कहकर निरूपित किया गया है ।
आत्म – चिन्तना का यह विस्तार अर्थात् आत्मा और देह का परस्पर योग रूप यह ज्ञान महत्त्वपूर्ण तो है, परन्तु पर्याप्त नहीं, क्योंकि प्रबल देह चेतना और उससे सम्बन्ध रखने वाले विचार मगरमच्छों की भांति किसी भी समय इस ज्ञान को निगल जाने के लिए तैयार रहते हैं, इसलिए द्वितीय सोपान के रूप में कथा संकेत करती है कि मैं आत्मा हूं और सभी मेरे समान आत्मस्वरूप हैं – यह आत्म – चिन्तना बुद्धि के स्तर पर इतनी सुदृढता से स्थित होना आवश्यक है कि सतत् आत्म – स्मृति में देह – स्मृति शिथिल हो जाए । इसे ही कथा में प्रलय – समुद्र में भूः भुवादि लोकों का डूब जाना कहकर इंगित किया गया है ।
बुद्धि के स्तर पर निर्मित यह सुदृढ आत्म – स्मृति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यही आत्म – स्मृति मनुष्य को गुह्य ज्ञान की नौका पर आरूढ कराती है अर्थात् सुदृढ आत्म – स्मृति के फलस्वरूप ही मनुष्य का अन्तर्निहित ज्ञान प्रकट हो पाता है । यही नहीं, बुद्धि में स्थित इस सुदृढ आत्म – स्मृति के फलस्वरूप मनुष्य की चेतना का जो जागरण होता है, उससे उसका मन, उसकी बुद्धि तथा पांचों ज्ञानेन्द्रियों (सप्तर्षि) दिव्यता को धारण कर लेते हैं और फिर उस दिव्यता के आलोक में मनुष्य अपने श्रेष्ठ गुणों(ओषधि ) तथा बीज(संस्कार) रूप में विद्यमान दोषों को धारण करता हुआ सुखपूर्वक विहार करने लगता है ।
आत्म – ज्ञान रूपी नौका पर आरूढ होना और दिव्यता के आलोक में रहकर सुखपूर्वक विहार करना अत्युत्तम है परन्तु यह भी पर्याप्त नहीं क्योंकि आत्म – ज्ञान के साथ ही उत्पन्न हुए अहंकार की प्रबल आंधी से आत्म – ज्ञान रूपी यह नौका भी डगमगाने लगती है । इसलिए तृतीय सोपान के रूप में कथा संकेत करती है कि आत्म – ज्ञान की इस नौका को परमात्म – चिन्तन (मत्स्य शृङ्ग) से जोड देना अनिवार्य है । परमात्म – चिन्तन से जुडकर मनुष्य आत्म – ज्ञान विषयक अहंकार से मुक्त हो जाता है और तब सर्वत्र व्याप्त आत्म – चैतन्य रूपी प्रलय – समुद्र में विहार करना अत्यन्त आनन्दकारी हो जाता है ।
परन्तु आत्म – ज्ञान रूपी नौका को अर्थात् आत्मा रूप स्वयं को परमात्मा से कैसे जोडा जाए । इस प्रश्न का समाधान करते हुए चतुर्थ सोपान के रूप में कथा संकेत करती है कि आत्मा रूप स्वयं को परमात्म – चिन्तन से जोडने के लिए विचार तथा भाव रूपी रस्सी की आवश्यकता होती है जिसे कथा में वासुकि नाग कहकर संकेतित किया गया है अर्थात् मनुष्य ने अपने विचारों तथा भावों में परमात्मा के जिस स्वरूप को स्थापित कर रखा है, उसी स्वरूप का अपने मन – बुद्धि की आंखों से साक्षात्कार करते हुए ज्ञान – प्राप्ति का समस्त श्रेय उसी के चरणों में निवेदित कर देना चाहिए ।
इस प्रकार जब चेतना उपर्युक्त वर्णित विशिष्ट मत्स्य स्वरूप से समन्वित हो जाती है, तब मनुष्य अत्यन्त ज्योतिर्मय, प्रभावी व्यक्तित्व को धारण कर लेता है जिसे कथा में राजर्षि सत्यव्रत का ही नए कल्प में वैवस्वत मनु बन जाना कहा गया है ।