भरत चरित्र
- राधा गुप्ता
श्रीमद्भागवत महापुराण के पंचम स्कन्ध में सातवें अध्याय से लेकर 15वें अध्याय तक भरत – चरित्र विस्तार से वर्णित है । इस चरित्र के अन्तर्गत भरत की उत्पत्ति, विवाह तथा पुत्रोत्पत्ति के पश्चात् भरत का पुलहाश्रम में निवास, मृगशावक की उत्पत्ति तथा भरत जी की उसमें आसक्ति, मृगयोनि में जन्म, पुनः ब्राह्मण के घर जड भरत के रूप में जन्म, राजा रहूगण से भेंट, रहूगण को उपदेश तथा आत्मोपदेश से रहूगण द्वारा देहात्मबुद्धि का त्याग रूप अनेक वृत्तान्तों को सम्मिलित किया गया है । भरत का जन्म, विवाह तथा पुत्रोत्पत्ति का वर्णन प्रियव्रत वंश वर्णन के अन्तर्गत किया जा चुका है । शेष कथा का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है –
कथा का संक्षिप्त स्वरूप
ऋषभ – पुत्र भरत ने यज्ञ रूप भगवान् का यजन किया और एक करोड वर्ष निकल जाने पर वंश परम्परागत सम्पत्ति को यथायोग्य पुत्रों में बांटकर भरत पुलहाश्रम चले आए । पुलहाश्रम में चक्राकार शालग्राम शिलाओं से युक्त चक्र नदी सब ओर से ऋषियों के आश्रमों को पवित्र करती है । पुलहाश्रम में रहते हुए भरत भगवत्सेवा के नियम में तत्पर रहते और परमपुरुष भगवान् नारायण की आराधना करते ।
एक बार भरत जी महानदी(चक्र नदी) में स्नान कर नित्य नैमित्तिक कृत्यों से निवृत्त हो तीन मुहूर्त्त तक नदी की धारा के पास बैठे रहे । तभी एक मृगी प्यास से व्याकुल हो जल पीने के लिए अकेली ही नदी के तीर पर आई। वह जल पी ही रही थी कि पास में ही गरजते हुए सिंह की दहाड उसे सुनाई पडी । मृगी ने भयवश जैसे ही नदी पार करने के लिए छलांग लगाई, उसके गर्भ में स्थित शावक निकलकर नदी के प्रवाह में गिर गया और मृगी किसी गुफा में जाकर मर गई ।
नदी में प्रवाहित मृगशावक को देखकर भरत जी को दया आई और वे उस मातृहीन मृगशावक को अपने आश्रम पर ले आए । मृगशावक पर भरत जी की आसक्ति उत्तरोत्तर बढती गई और शनैः शनैः उनके यम – नियम तथा भगवत्पूजा आदि सब कृत्य छूट गए । भरत जी का चित्त हर समय मृगशावक के स्नेह पाश में बंधा रहता और उसे न देखकर वे व्याकुल भी हो जाते । अन्त में मृगशावक में आसक्ति के साथ ही उनका शरीर छूट गया और अन्तकाल की भावना के अनुसार उन्हें अगले जन्म में मृगशरीर ही मिला । मृगशरीर में भी उनकी भगवत्स्मृति बनी रही परन्तु शीघ्र ही उन्होंने वह मृग शरीर भी त्याग दिया ।
मृगशरीर का परित्याग करके अन्तिम जन्म में भरत जी आङ्गिरस गोत्रीय ब्राह्मण के पुत्र हुए । बडी पत्नी से इस ब्राह्मण के नौ पुत्र थे जो पिता के समान ही अत्यन्त गुणवान् थे । छोटी पत्नी से ब्राह्मण को जड भरत प्राप्त हुए । इस जन्म में उन्होंने स्व – स्वरूप को छिपाए रखकर स्वयं को जड स्वरूप में ही प्रदर्शित किया । एक बार जड भरत को देवी की बलि के लिए यज्ञ – पशु भी बनना पडा परन्तु इस स्थिति में भी वे व्याकुल नहीं हुए ।
इसी प्रकार एक बार सौवीरराज रहूगण ने जड भरत को अपनी पालकी में चौथे कहार के रूप में नियोजित किया और पालकी के हिलने – डुलने पर अहंकारवश उनका अपमान तथा तिरस्कार भी किया । परन्तु जड भरत ने उस तिरस्कार से सर्वथा अछूते रहकर रहूगण को यथार्थ तत्त्व का उपदेश दिया । यथार्थ तत्त्वोपदेश सुनकर रहूगण का मद दूर हो गया और उसने अत्यन्त क्षमाप्रार्थी होते हुए भरत जी के सत्संग से अविद्यावश आरोपित देहात्मबुद्धि का सर्वथा त्याग कर दिया ।
कथा की प्रतीकात्मकता
कथा प्रतीक शैली में है, इसलिए प्रतीकों को समझना आवश्यक है ।
1- भरत
भरत (भरं – तनोति) का अर्थ है – आत्मा के सुख – शान्ति – शुद्धता – शक्ति - प्रेम – ज्ञान तथा आनन्द रूपी गुणों के भार(संग्रह) को जगत में अथवा सम्बन्धों में बांटने वाला मन ।
2- पुलहाश्रम
पुलहाश्रम शब्द पुलह तथा आश्रम नामक दो शब्दों के योग से बना है । पौराणिक साहित्य में ब्रह्मा के मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु तथा वसिष्ठ नामक जो सात पुत्र कहे गए हैं, वे सात पुत्र मन की सात स्थितियों को इंगित करते हैं । इन सात स्थितियों में पुलस्त्य ( पुर – स्त्य) स्थिति मन के विस्तार अर्थात् बहिर्मुखता की तथा पुलह( पुर – हा ) स्थिति मन के संकोच अर्थात् अन्तर्मुखता की वाचक है । आश्रम का अर्थ है – निवास स्थान । अतः पुलहाश्रम का अभिप्राय हुआ – संसार में रहते हुए भी भरत मन का संसार में न होना अर्थात् भरत मन की अन्तर्मुखी स्थिति ।
3- चक्रनदी
चक्रनदी शब्द वर्तुलाकार सृष्टि – प्रवाह को इंगित करता है । सृष्टि – प्रवाह के वर्तुलाकार होने के कारण ही सृष्टि को अनादि और अनन्त कहा गया है क्योंकि वर्तुल में कोई आदि और अन्त नहीं होता ।
4- चक्रनदी में विद्यमान चक्रांकित शालग्राम शिलाएं
चक्रनदी में विद्यमान चक्रांकित शालग्राम शिलाओं के द्वारा वास्तव में वर्तुलाकार सृष्टि – प्रवाह के अन्तर्गत वर्तमान वर्तुलाकार भौतिक स्थितियों यथा – दिन – रात का चक्र, ऋतुओं का चक्र, युगों का चक्र तथा जन्म – मृत्यु का चक्र आदि को इंगित किया गया है ।
5- मृगी का नदी के तीर पर आना
मृगी शब्द मृग् धातु से बना है जिसका अर्थ है – ढूंढना अथवा खोजना । आत्मस्थ(soul – conscious) होने के बाद भी मनुष्य मन के भीतर यह खोज सतत् चलती रहती है कि इस अनादि – अनन्त सृष्टि प्रवाह में मेरे होने का प्रयोजन क्या है, अर्थात् मैं यहां क्यों हूं । इसे ही कथा में प्यास से व्याकुल मृगी का नदी के तीर पर आना कहकर इंगित किया गया है ।
6- मृगशावक का जन्म
कथा में कहा गया है कि सिंह की दहाड सुनकर मृगी के गर्भ में स्थित मृगशावक मृगी के छलांग लगाने से नदी के जल में गिर पडा ।
मृगशावक शब्द जीवन के उद्देश्य का वाचक है । यहां इस विशिष्ट तथ्य को संकेतित किया गया है कि मनुष्य के भीतर उठा हुआ यह प्रश्न कि मैं यहां क्यों हूं, तब तक अनुत्तरित रहता है जब तक उसे इस प्रश्न का सही उत्तर नहीं मिल जाता कि मैं कौन हूं । जब तक मनुष्य यह मानता है कि मैं देह हूं, तब तक देह से सम्बन्ध रखने वाली विभिन्न भूमिकाओं(roles) तथा उन भूमिकाओं से सम्बन्धित कार्य ही उसके जीवन का उद्देश्य बने रहते हैं । उदाहरण के लिए, माता – पिता की भूमिका में मनुष्य के जीवन का उद्देश्य बच्चों का सम्यक् पालन – पोषण ही होता है । परन्तु विभिन्न प्रकार की भूमिकाएं तथा उन भूमिकाओं से सम्बन्धित कार्य जीवन के लक्ष्य तो हैं, जीवन का उद्देश्य नहीं । जिस दिन मनुष्य को यह ज्ञान होता है कि मैं देह नहीं, अपितु देह को चलाने वाला आत्मा हूं – उसी दिन उसे सहज रूप से यह भी पता चलता है कि जब मैं आत्मा हूं, तब आत्मा के सुख – शान्ति – शक्ति – शुद्धता – ज्ञान – प्रेम तथा आनन्द प्रभृति गुणों की अनुभूति तथा अभिव्यक्ति ही मेरे जीवन का वास्तविक उद्देश्य है ।
कथा में सिंह की दहाड आत्मस्वरूप के कौंधने को इंगित करती है । आत्मस्वरूप के कौंधने से जीवन का उद्देश्य रूप वह मृगशावक बाहर प्रकट हो जाता है जो अभी तक गर्भ में ही छिपा हुआ था अर्थात् आत्मगुणों को जगत में बांटते हुए भी भरत मन को यह ज्ञात नहीं था कि यही तो मुझ आत्मा के जीवन का उद्देश्य है । अब वह उद्देश्य प्रकाशित हो जाता है ।
7- मृगशावक पर आसक्ति
कथा में मृगशावक पर भरत की आसक्ति का जो विस्तारयुक्त वर्णन उपलब्ध होता है, उसका एकमात्र प्रयोजन यही इंगित करना है कि जीवन का उद्देश्य प्रकट हो जाने पर उस उद्देश्य के प्रति मनुष्य की मुग्धता अत्यन्त सहज है और अब मनुष्य की समग्र साधना उस उद्देश्य की पूर्ति की दिशा में ही अग्रसर होती है । उद्देश्य से इतर सब साधनाओं का स्वतः ही छूट जाना स्वाभाविक है ।
8- मृग योनि में जन्म
भरत का मृगयोनि में जन्म रूढ अर्थ में प्रचलित मृगयोनि में जन्म का वाचक नहीं है । मृगयोनि में जन्म का अर्थ है – सुख – शान्ति – शुद्धता – शक्ति – ज्ञान – प्रेम तथा आनन्द प्रभृति आत्मगुणों की अनुभूति और अभिव्यक्ति रूपी उद्देश्य की पूर्ति हेतु तत्सम्बन्धी चिन्तन और साधन में मन की प्रगाढ तल्लीनता अथवा तन्मयता ।
9- ब्राह्मण योनि में जन्म
कथा में कहा गया है कि श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न एक आंगिरसगोत्रीय ब्राह्मण थे जिनकी बडी पत्नी से उन्हीं के समान गुण वाले नौ पुत्र तथा छोटी पत्नी से राजर्षि भरत ( जड भरत ) का जन्म हुआ ।
आंगिरस का अर्थ है – मनोमय, प्राणमय तथा अन्नमय कोषों के अंग – अंग में बसी चेतना ।
ब्राह्मण शब्द ब्रह्म – चेतना (soul consciousness) का वाचक है । अतः आंगिरस गोत्रीय ब्राह्मण का अर्थ हुआ – मनोमय, प्राणमय तथा अन्नमय कोषों के अंग – अंग में बसी ब्रह्म चेतना अर्थात् ब्रह्म चेतना में स्थित होकर तदनुसार ही जीवन में व्यवहार . मृगयोनि से ब्राह्मणयोनि में जन्म लेने का अर्थ है – जीवन – उद्देश्य के प्रति प्रगाढ तन्मयता का शनैः शनैः ब्रह्मचेतना से सम्पन्न व्यक्तित्व से संयुक्त हो जाना । ब्रह्म चेतना में स्थित होकर तदनुसार व्यवहार करने से मनुष्य की पांचों ज्ञानेन्द्रियों तथा मन – बुद्धि – चित्त – अहंकार सभी में अद्भुत गुणवत्ता प्रकट हो जाती है जिसे कथा में ब्राह्मण की पहली पत्नी से नौ गुणवान् पुत्रों का उत्पन्न होना कहा गया है । परन्तु बाद में जीवन – उद्देश्य के प्रति प्रगाढ तन्मयता और ब्रह्मचेतना (soul consciousness) की यह संयुक्तता ही भरत मन की निष्कम्पता के रूप में प्रकट हो जाती है जिसे कथा में ब्राह्मण की छोटी पत्नी से जड भरत का जन्म होना कहकर संकेतित किया गया है ।
10- जड भरत
यहां जडता से अभिप्राय रूढ अर्थ में प्रचलित अज्ञानता से न होकर जडवत् स्थिति से है । इस जडवत् अर्थात् निष्कम्प स्थिति को व्यक्त करने के लिए ही कथा में इस अवान्तर कथा का भी समावेश किया गया है कि बलि के लिए यज्ञपशु बनने पर भी भरत जी व्याकुल नहीं हुए ।
11- रहूगण
भरत मन की निष्कम्प स्थिति के महत्त्व को प्रतिपादित करने के लिए ही कथा में रहूगण के कथानक का समावेश किया गया है । रहूगण शब्द रंहण शब्द का पौराणिक स्वरूप प्रतीत होता है । सायणाचार्य की रंहणाद्रथ निरुक्ति के आधार पर रथ की गति को रंहण कहा जाता है । आध्यात्मिक स्तर पर मन भी आत्मा का रथ है और इस मन में निहित सूक्ष्म ज्ञानाभिमान को मन रूपी रथ का रंहण कहा जा सकता है । कथा संकेत करती है कि यह रंहण अर्थात् सूक्ष्म ज्ञानाभिमान तभी तक विद्यमान रहता है जब तक निष्कम्प भरत मन का सान्निध्य नहीं होता । भरत मन के सान्निध्य में मन रूपी रथ का यह रंहण अर्थात् सूक्ष्म ज्ञानाभिमान स्वतः ही अपने स्थान से नीचे उतरकर आत्म – स्वरूप में विलीन हो जाता है ।
कथा में रहूगण को सौवीरराज कहा गया है । सुवीर स्थिति ज्ञानयुक्त स्थिति की द्योतक है और इस सुवीर अर्थात् ज्ञानयुक्त स्थिति से मनुष्य के भीतर जो ज्ञान का अभिमान भी उत्पन्न हो जाता है – उसे ही सम्भवतः यहां सौवीर(सुवीर से उत्पन्न ) कहकर इंगित किया गया है ।
रहूगण की पालकी और उसमें जुडे हुए चार कहार मनुष्य जीवन के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक पक्षों को इंगित करते हैं । शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक पक्षों से मनुष्य जीवन में कोई रूपान्तरण घटित नहीं होता, इसलिए जीवन अपनी यथापूर्व सुचारु गति से चलता रहता है । परन्तु आध्यात्मिक पक्ष जिसमें मानव जीवन के उद्देश्य से ओतप्रोत यथार्थ तत्त्व सन्निहित हों – इस जीवन रूपी पालकी को हिला देता है जिसे कथा में जड भरत के जुडने पर पालकी का हिलना कहकर संकेतित किया गया है ।