ध्रुव - कथा का रहस्यात्मक स्वरूप
- राधा गुप्ता
श्रीमद् भागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध में अध्याय ८ से अध्याय १२ तक ध्रुव की कथा विस्तार से वर्णित है और भक्तिपरक आवरण से आच्छादित है । कथा का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है -
स्वायम्भुव मनु के दो पुत्रों में से एक थे - राजा उत्तानपाद । राजा उत्तानपाद की २ रानियां थीं - सुरुचि और सुनीति । सुरुचि का पुत्र था उत्तम तथा सुनीति का पुत्र था ध्रुव । एक दिन जब राजा उत्तानपाद की गोद में उत्तम बैठा हुआ था, तब ध्रुव ने भी अपने पिता की गोद में बैठना चाहा परन्तु राजा ने उसका स्वागत नहीं किया और सुरुचि ने भी अपने वाiग्बाणों से ध्रुव को पीडित किया । ध्रुव रोता हुआ अपनी माता सुनीति के पास आया । रोने का समस्त वृत्तान्त जानकर माता सुनीति ने युक्तियुक्त वचनों के द्वारा ध्रुव के चित्त का समाधान करते हुए उसे किसी के प्रति भी द्वेष न रखने, किसी के भी अमङ्गल की कामना न करने, अपने कर्मों के फल को स्वयं ही भोगने, विमाता के वचनों को भी स्वीकार करने तथा उच्चपद की प्राप्ति हेतु भगवान् के चरण - कमलों का भजन करने के लिए प्रेरित किया । तभी नारद जी वहां आए और उन्होंने ध्रुव को उसके निश्चय से डिगाने का यथायोग्य प्रयत्न किया । परन्तु जब ध्रुव अपने निश्चय से विचलित नहीं हुए, तब नारद जी ने उन्हें सुनीति के वचनों का समर्थन करते हुए यमुना के तटवर्ती मधुवन में जाकर भगवद् - भजन करने की आज्ञा दी । ध्रुव की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् ने उन्हें दर्शन दिए और उनके हृदयस्थ संकल्प को पूर्ण करते हुए उन्हें ध्रुवलोक प्रदान किया । पिता की आज्ञा से ध्रुव राज्य - सिंहासन पर आरूढ हुए । भगवद् दर्शन से ध्रुव के मन की मलिनता दूर हो गई थी, इसलिए अब उन्हें नाशवान् वस्तु के रूप में उच्च पद की प्राप्ति रूप अपने संकल्प के प्रति पश्चात्ताप ही हुआ । ध्रुव ने प्रजापति शिशुमार की पुत्री भ्रमि से विवाह किया जिससे उन्हें कल्प तथा वत्सर नामक दो पुत्र प्राप्त हुए तथा वायु - पुत्री इला से विवाह किया जिससे उत्कल नामक पुत्र प्राप्त हुआ । एक दिन उनका भाई उत्तम मृगया करते हुए हिमालय की घाटी में एक बलवान् यक्ष द्वारा मारा गया तथा उसके साथ उसकी माता सुरुचि भी परलोक सिधार गई । भाई की मृत्यु से व्यथित होकर ध्रुव यक्ष - देश में पहुंच गए और यक्षों के साथ उनका भयंकर युद्ध होता रहा । अन्त में स्वायम्भुव मनु की शिक्षाओं से प्रेरित होकर ध्रुव युद्ध से विरत हो गए । इससे यक्षों के स्वामी कुबेर को अत्यन्त हर्ष प्राप्त हुआ और उन्होंने ध्रुव को श्रीहरि की अखण्ड स्मृति बने रहने का वरदान दिया । श्रीहरि की अखण्ड स्मृति से ध्रुव का देहाभिमान गल गया और नन्द - सुनन्द नामक भगवान् के पार्षदों के आग्रह करने पर ध्रुव ने माता सुनीति के साथ भगवद्धाम को प्राप्त किया ।
कथा में निहित रहस्यात्मकता
प्रस्तुत कथा स्थिरता नामक गुण से सम्बन्ध रखती है तथा स्थिरता गुण के उद्भव एवं विकास के अनेक आयामों को प्रतीकात्मक भाषा - शैली में प्रस्तुत करती है । अब हम कथा के रहस्यात्मक तथ्यों को प्रतीकों के आधार पर समझने का प्रयास करें -
१. प्रत्येक मनुष्य के भीतर जो मन नामक तत्त्व विद्यमान है, उसका कार्य है - संकल्प करना, विचार करना । इस संकल्प अथवा विचार के दो स्तर हैं । जन्म - जन्मान्तरों में अर्जित किए हुए संस्कारों के कारण जब तक मनुष्य स्वयं को द%