परीक्षित कथा का रहस्यार्थ
- राधा गुप्ता
परीक्षित की कथा का संक्षिप्त स्वरूप
महाभारत युद्ध के पश्चात् एक दिन अश्वत्थामा ने पाण्डवों के वंश को निर्बीज करने के लिए उत्तरा के गर्भ पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया । कृष्ण ने गर्भ को अपने माया कवच से आवृत्त करके उसकी रक्षा की । उपयुक्त समय आने पर उत्तरा ने बालक को जन्म दिया जो परीक्षित नाम से प्रसिद्ध हुआ । श्रीकृष्ण के स्वधाम सिधार जाने तथा पाण्डवों के महाप्रयाण के पश्चात् परीक्षित राजा बने और पृथ्वी का शासन करने लगे । श्रीकृष्ण के स्वलोक गमन के पश्चात् परीक्षित के राज्य - शासन के समय में यद्यपि अधर्म के कारण रूप कलियुग का प्रवेश हो गया था, परन्तु परीक्षित ने बुद्धिमत्तापूर्वक कलियुग का दमन किया । भयभीत कलि ने परीक्षित की शरण ग्रहण की और परीक्षित ने भी शरणागत कलि को निवास हेतु पांच स्थान प्रदान करके अपने राज्य में धर्म को चारों चरणों(सत्य, दया, तप, पवित्रता) से स्थापित कर दिया ।
एक दिन राजा परीक्षित वन में शिकार खेलने के लिए गए । भूख - प्यास से व्याकुल होने पर वे शमीक ऋषि के आश्रम में प्रविष्ट हुए । शमीक ऋषि उस समय ध्यानावस्था में स्थित थे, अतः परीक्षित की जल की याचना को नहीं सुन सके और न ही ऋषि ने उनका सत्कार किया । परीक्षित ने ऋषि के प्रति ईर्ष्या तथा क्रोध से युक्त होकर धनुष की नोक से एक मरा सांप उठाकर ऋषि के गले में डाल दिया और अपनी राजधानी में लौट आए । कुछ ही समय के पश्चात् शमीक ऋष के पुत्र शृङ्गी ऋषि को जब इस घटना का पता चला तो उसने पिता का अपमान करने वाले राजा परीक्षित को शाप दिया कि आज से सातवें दिन उसे तक्षक सर्प डस लेगा । राजा परीक्षित ऋषि के प्रति किए गए अपने निन्दित व्यवहार के लिए पहले ही पश्चात्ताप से युक्त थे । अतः उन्होंने शृङ्गी - प्रदत्त शाप को सहर्ष स्वीकार कर लिया । राजा सभी आसक्तियों का परित्याग करके गङ्गा तट पर बैठकर श्रीकृष्ण के चरण कमलों का ध्यान करने लगे । वहां बहुत से मुनियों, ऋषियों तथा श्री शुकदेव जी से उनका मिलन हुआ । परीक्षित के प्रार्थना करने पर तथा उन्हें योग्य अधिकारी जानकर श्रीशुकदेव जी ने उन्हें परम सिद्धि का स्वरूप तथा साधन के सम्बन्ध में उपदेश दिया ।
कथा की प्रतीकात्मता
अब हम कथानक के एक - एक प्रतीक को समझने का प्रयास करें -
१. अश्वत्थामा मनुष्य की ऐसी चेतना का प्रतीक है जो इन्द्रियों के निग्रह को ही सर्वोच्च अवस्था मानकर उसी से बंधी रहती है । अश्वत्थामा शब्द अश्व तथा थामा नामक दो शब्दों से बना है । अश्व का अर्थ है - इन्द्रिय, जो व्याप्ति अर्थ वाली अश~ धातु से बना है तथा थामा का अर्थ है - थामना, रोकना ।
२. परीक्षित की माता उत्तरा मनुष्य चेतना की उत्तर की ओर , अर्थात् ऊपर की ओर प्रवृत्ति को इंगित करती है । इस उत्तराभिमुख प्रवृत्ति के भीतर ही ऐसी सात्विक तथा प्रखर मनश्चेतना विद्यमान रहती है जो मनुष्य को विकास की ओर अग्रसर करती है । इसी तथ्य को कहानी में उत्तरा का गर्भवती होना कहा गया है ।
३. अश्वत्थामा अर्थात् इन्द्रिय निग्रह से ही बंधी हुई चेतना उत्तरा अर्थात् उत्तराभिमुख प्रवृत्ति के गर्भ में स्थित प्रखर मनश्चेतना से द्वेष रखती है और उसे नष्ट करने का प्रयत्न करती है क्योंकि मनश्चेतना की प्रखरता, सात्विकता होने पर इन्द्रिय - निग्रह से बंधी चेतना महत्त्वहीन हो जाती है ।
४. मनुष्य का जाग्रत चैतन्य अर्थात् कृष्ण चेतना का विकास और विस्तार चाहता है तथा यह विकास एवं विस्तार प्रखर मन के माध्यम से ही सम्भव है । इसीलिए कहानी में कृष्ण को गर्भ के रक्षक के रूप में चित्रित किया गया है ।
५. राजा, राजर्षि तथा क्षत्रिय जैसे शब्द पौराणिक साहित्य में मन तथा बुद्धि की विभिन्न शक्तियों तथा वृत्तियों के प्रतीक हैं । परीक्षित भी एक राजा है, अतः वह प्रखर एवं सात्विक मन का प्रतीक है ।
६. परीक्षित शब्द परि तथा क्षित नामक दो शब्दों से मिलकर बना है । परि का अर्थ है - चारों ओर और क्षित का अर्थ है - फैला हुआ , बिखरा हुआ । मनश्चेतना के प्रखर तथा सात्विक होते हुए भी बुद्धि के स्तर पर चेतना अभी अहंकार के रूप में बिखरी हुई है, अतः परीक्षित नाम सार्थक ही है ।
७. राजा परीक्षित द्वारा सुव्यवस्थित रूप से राज्य का संचालन करना तथा अधर्म रूपी कलियुग के दुष्प्रभावों से राज्य की सर्वथा रक्षा करना मनश्चेतना अथवा मन की प्रखरता एवं सात्विकता को इंगित करता है ।
८. श्रीमद्भागवत में परीक्षित के जन्म के पूर्व के ५ अध्यायों में पाण्डवों की सहृदयता तथा कृष्ण - परायणता का जो विस्तारयुक्त वर्णन किया गया है , उसका उद्देश्य यह बताना है कि मनुष्य के भीतर प्रखर एवं सात्विक मन का जन्म अकस्मात् नहीं होता । पहले इन्द्रियों के तथा मन के स्तर पर सात्विक वृत्तियों/व्यापारों का फैलाव होता है, तभी प्रखर - सात्विक मनश्चेतना जन्म लेती है । कृष्ण - परायण पाण्डव मन की सात्विक वृत्तियों के प्रतीक हैं । महाभारत ग्रन्थ के रहस्यपूर्ण विवेचन में हम यह बात पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं ।
९. एक बार राजा परीक्षित का मृगया के लिए वन में जाना यह इंगित करता है कि प्रखर एवं सात्विक मन से युक्त मनुष्य ही एक न एक दिन अपने तथा जगत् के वास्तविक सत्य को जानने के लिए आतुर हो उठता है और उसकी खोज में प्रयत्नशील होता है । मृगया शब्द मृग् धातु से बना है जिसका अर्थ है - खोज करना ।
१०. वन में जाना परम सत्य की खोज में अन्तर्मुखी होना है । जैसे - जैसे मनुष्य परम सत्य की खोज में आगे बढता जाता है, वैसे - वैसे उसकी तत्सम्बन्धी प्यास भी बढती जाती है । इसे ही कहानी में परीक्षित का भूख - प्यास से व्याकुल होना कहा गया है ।
११. शमीक ( शम+क) ऋषि शम(शान्ति) प्रदान करने वाली चेतना अथवा स्थिति को इंगित करता है । मनश्चेतना जब अपने निवास स्थान मनोमय कोश से निकलकर विज्ञानमय कोश में पहुंचती है, तब उसका साक्षात्कार शम - प्रदायक चेतना अथवा स्थिति से होता है । यही राजा परीक्षित का शमीक ऋषि के आश्रम में पहुंचना है ।
१२. शमीक ऋषि ध्यानावस्था में स्थित थे, इसलिए परीक्षित के आगमन को नहीं जान पाए । विज्ञानमय कोश की शम - प्रदायक चेतना अथवा स्थिति का जाग्रत न होना ही शमीक ऋषि का ध्यानावस्था में स्थित होना है । यह कथन इस तथ्य को भी इंगित करता है कि प्रखर एवं सात्विक मनश्चेतना में यह सामर्थ्य तो विद्यमान होती है कि वह शम - प्रदायक शुद्ध, निर्मल स्थिति के निकट पहुंच जाए, परन्तु वह स्थिति अभी अक्रियाशील अथवा अजाग्रत होने के कारण मनुष्य उससे न तो कोई लाभ उठा पाता है तथा न ही अपनी सत्य प्राप्ति की प्यास को ही तृप्त कर पाता है ।
१३. राजा परीक्षित ने अपमान का अनुभव करके क्रोधयुक्त होकर पास ही पडे मृत सर्प को धनुष की नोक से उठाकर ऋषि के गले में डाल दिया । यह कथन बुद्धि में निहित - मैं कुछ हूं- रूप अहंकार को इंगित करता है । यहां सर्प अहंकार का प्रतीक है और धनुष संकल्प का प्रतीक है । मनुष्य की बुद्धि संकल्प के माध्यम से ही अहंकार का वहन करती है । अर्थात् बुद्धि का स्वरूप ही संकल्पमय है, इसलिए उन संकल्पों में ही अहंकार विद्यमान रहता है ।
१४. शमीक ऋषि के गले में सर्प डालने का अर्थ है - अपने ही भीतर विद्यमान अपनी शान्त चेतना को अपने ही बुद्धिगत अहंकार से ढंक देना ।
१५. मनुष्य का यह अहंकार बिल्कुल ही निरर्थक, प्रयोजन रहित, बेमानी(सम्मान न देने वाला ) होता है, इसलिए कहानी में उसे मृत सर्प कहकर इंगित किया गया है ।
१६. शृङ्ग शब्द का अर्थ है - उच्चता अथवा ऊंचाई । पुत्र शब्द पौराणिक साहित्य में गुण का प्रतीक है । अतः शृङ्गी ऋषि मनुष्य के विज्ञानमय कोश में स्थित शमीक रूपी शान्त चेतना का ही वह गुण है जो प्रखर एवं सात्विक मन रूपी राजा को ऊंचाईयां प्रदान करना चाहता है ।
१७. पौराणिक साहित्य में शाप - प्रदान अनिष्ट करने का सूचक नहीं है । यहां शाप - प्रदाता अनुग्रह युक्त चेतना से युक्त होता है और वह शाप प्राप्त करने वाले का हित चाहता है । ठीक वैसे ही जैसे सन्तान की ताडना के पीछे माता - पिता की अनुग्रहशील चेतना तथा सन्तान की हित भावना निहित होती है । शृङ्गी ऋषि रूपी उच्च चेतना प्रखर एवं सात्विक मन से युक्त किन्तु बुद्धि स्तर पर निहित अहंकार का तक्षण करना चाहती है, जिससे मनुष्य ऊर्ध्व गति कर सके ।
१८. परीक्षित का शुकदेव जी से मिलन और शुकदेव जी द्वारा परीक्षित को भागवत का उपदेश यही सूचित करता है कि व्यष्टि - समष्टि जगत में एक ऐसी अनुपम व्यवस्था विद्यमान है जो पात्रता के आधार पर तदनुरूप साधन भी जnटा देती है ।