गज - ग्राह कथा - एक विवेचन
- राधा गुप्ता
कथा का संक्षिप्त स्वरूप
त्रिकूट नाम का एक सुन्दर एवं श्रेष्ठ पर्वत था जिस पर हाथियों का सरदार एक गजेन्द्र निवास करता था । एक दिन वह गजेन्द्र मदमत्त होकर अपने साथियों के साथ उस पर्वत पर घूम रहा था । घूमते - घूमते तेज धूप से व्याकुल होकर उसे प्यास लगी और पानी की खोज में अपने साथियों के साथ वह उसी दिशा की ओर चल पडा जिस ओर से सुगन्धित वायु आ रही थी । थोडी ही देर में वह त्रिकूट पर्वत की तराई में स्थित भगवान् वरुण के ऋतुमान् नामक उद्यान में स्थित उस सरोवर के निकट पहुंच गया जिसमें सुन्दर - सुन्दर कमल खिले हुए थे । गजेन्द्र ने सरोवर में घुसकर पहले जल पिया, थकान मिटाई और फिर साथियों के साथ खूब क्रीडा की । क्रीडारत गजेन्द्र अपने ऊपर आने वाली विपत्ति से सर्वथा अनभिज्ञ था । तभी सरोवर में निवास करने वाले ग्राह ने उन्मत्त गजेन्द्र का पैर पकड लिया । गजेन्द्र ने पैर छुडाने की पर्याप्त कोशिश की परन्तु सर्वथा असमर्थ होकर अन्त में व्याकुल होकर भगवान् की शरण ग्रहण की । व्याकुल गजेन्द्र की प्रार्थना से प्रसन्न होकर गरुडासीन भगवान् श्री हरि प्रकट हो गए और शीघ्रतापूर्वक गजेन्द्र एवं ग्राह दोनों को सरोवर से बाहर निकाल लाए । श्रीहरि ने चक्र से ग्राह का मुंह फाडकर गजेन्द्र को छुडा लिया । ग्राह पूर्व जन्म में हू हू नाम का एक श्रेष्ठ गन्धर्व था । देवल के शाप से उसे ग्राह की गति प्राप्त हुई । अब भगवान् की कृपा से वह मुक्त होकर अपने लोक को चला गया । गजेन्द्र भी पूर्व जन्म में द्रविड देश का राजा इन्द्रद्युम्न था । वह भगवान् का श्रेष्ठ उपासक एवं अत्यन्त यशस्वी था । एक बार जब वह राजपाट छोडकर मलयपर्वत पर रहने लगा था, तभी अगस्त्य मुनि ने प्रजापालन रूप राजधर्म का परित्याग करने वाले राजा इन्द्रद्युम्न को हाथी की योनि प्राप्त होने (गजेन्द्र होने ) का शाप दिया था । अब श्री हरि की कृपा से ग्राह के फंदे से मुक्त होकर गजेन्द्र भगवान् के ही स्वरूप को प्राप्त हो गया और भगवान् उसे लेकर अपने अलौकिक धाम को चले गए ।
कथा का प्रतीकात्मक स्वरूप
कथा के आध्यात्मिक स्वरूप को समझने के लिए सर्वप्रथम उसके प्रतीकों को समझ लेना उपयोगी होगा ।
१- त्रिकूट पर्वत : त्रिकूट पर्वत मनुष्य की त्रिगुणात्मिका (सत्, रज, तम) प्रकृति अर्थात् देह का प्रतीक है ।
२- गजेन्द्र : गजेन्द्र इस त्रिकूट पर्वत अर्थात् देह में रहने वाले देहभावस्थ बहिर्मुखी मन को इंगित करता है ।
३- वरुण का ऋतुमान् नामक उद्यान - वरुण शब्द प्रकृति तथा परमात्मा दोनों का वाचक है परन्तु यहां प्रकृति के अर्थ में ही इसका प्रयोग हुआ है । ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों की क्रियाशीलता को ही यहां वरुण अर्थात् प्रकृति का उद्यान कहकर इंगित किया गया है । इस उद्यान को ऋतुमान् नाम दिया गया है । ऋतुमान्(ऋतु + मान् ) शब्द ऋतु तथा मान् से बना है । ऋतु शब्द ऋत को इंगित करता है तथा मान् एक प्रत्यय है । अतः ऋतुमान् का अर्थ है - ऋत से युक्त । ऋत का अर्थ है - ऐसा सत्य जो ऋतु की भांति साधक की स्थिति के अनुसार बदलता रहता है । इन्द्रियां इसी ऋत से युक्त होती हैं, इसलिए इन्द्रियों के उद्यान को ऋतुमान् कहना सर्वथा उचित ही है ।
४- ऋतुमान् उद्यान में सरोवर की स्थिति - सरोवर शब्द विषय रूप जल का प्रतीक है । अतः ऋतुमान् उद्यान में सरोवर की स्थिति का अर्थ है - ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों का अपने - अपने विषयों के साथ आदान - प्रदान ।
५- ग्राह : ग्राह शब्द ग्रह से बना है , जिसका अर्थ है - पकडना, जकडना, बन्धन में डालना आदि । इन्द्रिय - विषयों में प्रसन्नता अथवा आनन्द के अनुभव को ही यहां मनुष्य मन को बन्धन में डालने वाला प्रबल ग्राह कहा गया है । यह प्रसन्नता अथवा आनन्द का अनुभव ही मनुष्य मन को प्रसन्नता प्राप्ति के लिए विषयों पर निर्भर बना देता है और फिर मनुष्य एक विषय से दूसरे विषय में भटकता हुआ भी कभी तृप्त नहीं हो पाता । विषय क्षणभंगुर हैं और विषयों में वास्तव में प्रसन्नता अथवा आनन्द है ही नहीं । प्रसन्नता अथवा आनन्द का स्रोत तो आत्मा है परन्तु अज्ञानवश मनुष्य को वह प्रसन्नता विषयों से आती प्रतीत होती है । अतः बन्धनकारी न होते हुए भी अज्ञानवश विषय बन्धनकारी हो जाते हैं ।
६- हू हू गन्धर्व - गन्धर्व शब्द भाव की अनुभूति (feeling) का वाचक है और हू हू शब्द प्रसन्नता अथवा आनन्द के भाव को अभिव्यक्त करता है । अतः हू हू गन्धर्व का अभिप्राय है - प्रसन्नता अथवा आनन्द के भाव की अनुभूति ।
७ - शाप - पौराणिक साहित्य में शाप शब्द अवश्य भवितव्यता को इंगित करता है ।
८ - देवल - देवल (देव+ ल) ऋषि का अर्थ है - मनुष्य में दिव्यता का आधान करने वाली चेतना । विषयों में प्रसन्नता अथवा आनन्द का अनुभव ( हू हू गन्धर्व) मन को पतन की ओर ले जाता है । परन्तु देवल चेतना मनुष्य का पतन नहीं चाहती, इसीलिए वह विषयों में प्रसन्नता के अनुभव को बन्धनकारी (ग्राह) बनाकर मनुष्य को दु:खों में डालती है । दु:खों से त्रस्त होकर ही मनुष्य एक न एक दिन आत्मस्थ होने के लिए प्रवृत्त हो पाता है ।
९ - इन्द्रद्युम्न - राजा इन्द्रद्युम्न ( इन्द्र + द्युम्न ) आत्मभाव में स्थित प्रकाशयुक्त ( शुद्ध तथा स्थिर ) मन को इंगित करता है । ऐसा मन सर्वथा परमार्थ का पोषक होता है । परन्तु यही मन जब काल के प्रभाव से आत्म भाव को विस्मृत करके देहभाव में स्थित हो जाता है, तब परमार्थ का पोषक न होकर स्वार्थपरक हो जाता है जिसे कथा में गजेन्द्र कहा गया है । आत्मभाव को विस्मृत करके देहभाव में स्थित होने को ही कथा में यह कहकर इंगित किया गया है कि इन्द्रद्युम्न राजापाट तथा प्रजापालन को छोडकर मलयपर्वत(विषयों में अनुरक्त ) रहने लगा ।
१० - अगस्त्य - अगस्त्य ( अग + स्त्य ) का अर्थ है - चैतन्य का विस्तार । पौराणिक साहित्य में वसिष्ठ ऋषि चैतन्य की ऊर्ध्वमुखी अवस्था ( एकान्तिक साधना) और अगस्त्य ऋषि चैतन्य के विस्तार (सार्वत्रिक साधना ) को इंगित करते हैं । अगस्त्य चेतना कभी नहीं चाहती कि मन पारमार्थिक अवस्था ( आत्म भाव ) से स्वार्थ अवस्था ( देह भाव ) में रूपान्तरित हो । यदि ऐसा होता है अर्थात् मन परमार्थ से स्वार्थ में रूपान्तरित हो जाता है, तब उस स्वार्थपरक मन का ( गजेन्द्र का ) दु:खों में पडना निश्चित ही है । इस निश्चितता अथवा अवश्यम्भाविता को ही कथा में अगस्त्य मुनि का शाप प्रदान कहकर निरूपित किया गया है ।
११ - ग्राह - पीडित गजेन्द्र का व्याकुल होकर भगवान् को पुकारना यह संकेत करता है कि दु:खों से मुक्ति आत्मभाव में स्थित होकर ही सम्भव है । आत्मभाव में स्थिति के लिए मन का रूपान्तरण अनिवार्य है और मन का रूपान्तरण तब घटित होता है जब रूपान्तरित होने की प्रबल, प्रगाढ इच्छा मनुष्य के भीतर जाग्रत हो जाए और वह उसी दिशा में प्रयत्नशील हो ।
१२ - गजेन्द्र का परमधाम गमन मन की आत्मभाव में स्थिति को इंगित करता है । जो मन (गजेन्द्र ) अभी तक देहभाव से जुडा हुआ था, वही अब आत्म भाव से संयुक्त हो जाता है ।
१३ - श्रीहरि का प्राकट्य मनुष्य मन में प्रकट हुए आत्मभाव को इंगित करता है । देहभाव में स्थित मन दु:खों से व्याकुल होकर जब आत्म स्वरूप का स्मरण करता है, तभी आत्म स्वरूप प्रकट हो पाता है । आत्म - विस्मृति में आत्म स्वरूप का प्रकट होना कदापि सम्भव नहीं है । चूंकि आत्म स्मृति देहभाव और उससे उत्पन्न दु:खों का हरण कर लेती है, इसलिए आत्मा को हरि नाम देना सार्थक ही है । हरि शब्द हरण अर्थ वाली 'हृ ' धातु से निष्पन्न हुआ है । कथा में श्रीहरि को गरुडासीन कहा गया है । गरुड शब्द अत्यन्त उच्च विचार अथवा संकल्प का वाचक है । चूंकि आत्मानुभव उच्च कोटि के विचार पर ही आरूढ होकर आता है, इसलिए श्रीहरि को गरुडासीन कहा गया है ।