कर्दम - देवहूति कथा - एक विवेचन
- राधा गुप्ता
श्रीमद्भागवत महापुराण के तृतीय स्कन्ध में अध्याय २१ से २४ तक कर्दम - देवहूति कथा विस्तार से वर्णित है । कथा का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है -
कथा का संक्षिप्त स्वरूप
ब्रह्मा जी ने भगवान कर्दम को सन्तान - उत्पत्ति के लिए आज्ञा दी । अतः कर्दम जी ने अन्तर्मुख होकर सरस्वती नदी के तट पर स्थित बिन्दुसर तीर्थ में दस हजार वर्षों तक तपस्या की । एकाग्रचित्त से श्रीहरि की आराधना करने पर श्रीहरि ने उन्हें दर्शन दिए। कर्दम जी ने ब्रह्मा जी की आज्ञा का स्मरण करते हुए श्रीहरि के समक्ष अपने अनुरूप स्वभाव वाली शीलवती कन्या से विवाह की इच्छा प्रकट की । श्रीहरि ने कर्दम जी की इच्छा का सम्मान तथा अनुमोदन करते हुए उन्हें स्वायम्भुव मनु की कन्या देवहूति के साथ शीघ्र ही विवाह होने का आश्वासन दिया और कहा कि देवहूति के संयोग से उन्हें ९ कन्याएं प्राप्त होंगी और उन कन्याओं के साथ विवाह करके मरीचि प्रभृति ऋषि सन्तान उत्पन्न करेंगे । श्रीहरि ने यह भी कहा कि तुम शुद्धचित्त से आत्म - ज्ञान प्राप्त करोगे तथा मैं भी तुम्हारे वीर्य का आश्रय ग्रहण कर अपने अंश कला रूप से तुम्हारी पत्नी देवहूति के गर्भ से अवतीर्ण होकर तत्त्व - संहिता का निर्माण करूंगा ।
कर्दम ऋषि से इस प्रकार सम्भाषण करके श्रीहरि अपने लोक को चले गए । स्वायम्भुव मनु पत्नी शतरूपा के साथ अपनी पुत्री देवहूति को लेकर कर्दम ऋषि के समीप पहुंचे । स्वायम्भुव मनु तथा कर्दम ऋषि ने एक दूसरे का यथोचित सम्मान किया तथा परस्पर बातचीत के पश्चात् मनु जी ने देवहूति को प्रसन्नतापूर्वक कर्दम ऋषि को दान कर दिया । स्वायम्भुव मनु एवं शतरूपा अपनी राजधानी बर्हिष्मती पुरी में लौट आए और देवहूति अपने पति कर्दम जी की सेवा में संलग्न हो गई । कर्दम जी ने देवहूति के साथ विहार करने के लिए एक श्रेष्ठ विमान की रचना की परन्तु देवहूति ने उस विमान को प्रसन्न चित्त से नहीं देखा । कर्दम जी देवहूति के हृदय का भाव समझ गए थे, अतः देवहूति को बिन्दु सरोवर में स्नान करने का निर्देश दिया । कर्दम जी के निर्देशानुसार देवहूति ने बिन्दु सरोवर में स्नान कर अत्यन्त निर्मलता प्राप्त की और अनुरागपूर्वक कर्दम जी के साथ विहार किया । आश्रम में लौटकर कर्दम जी ने भगवान के कथन का स्मरण कर स्वयं को नौ रूपों में विभक्त करके देवहूति के गर्भ में वीर्य स्थापित किया जिससे एक साथ नौ कन्याएं उत्पन्न हुई ।
इसी समय ब्रह्मा जी मरीचि आदि ऋषियों को साथ लिए कर्दम जी के आश्रम पर आए और कर्दम जी को अपनी नौ कन्याएं मरीचि आदि नौ ऋषियों को उनके स्वभाव और रुचि के अनुसार समर्पित करने का आदेश देकर चले गए । कर्दम जी ने ब्रह्मा जी की आज्ञानुसार अपनी कला नाम की कन्या मरीचि ऋषि को, अनसूया अत्रि ऋषि को, श्रद्धा अङ्गिरा ऋषि को, हविर्भू पुलस्त्य ऋषि को, गति पुलह ऋषि को, क्रिया क्रतु ऋषि को, ख्याति भृगु ऋषि को, अरुन्धती वसिष्ठ ऋषि को तथा शान्ति अथर्वा ऋषि को प्रदान कर दी । सभी ऋषि अपनी - अपनी पत्नियों को साथ लेकर अपने - अपने आश्रम लौट गए ।
देवहूति ने स्वयं भगवान् को ही गर्भ में धारण किया जो कपिल रूप में अवतीर्ण हुए । कर्दम जी ने भगवान् कपिल की स्तुति करके उनकी आज्ञा से वन को प्रस्थान किया और भगवद् भक्ति से सम्पन्न होकर परमपद को प्राप्त किया । देवहूति भी कपिल जी से तत्त्वज्ञान का उपदेश प्राप्त करके मोक्ष पद को प्राप्त हो गई ।
कथा का मूल भाव
प्रस्तुत कथा प्रतीक शैली में है और इस सामान्य से परन्तु महत्त्वपूर्ण तथ्य को इंगित करती है कि प्रत्येक मनुष्य अपने भीतर उन अनेक ध्रुव सम्भावनाओं, शक्तियों अथवा सामर्थ्य को समाहित किए हुए है जो उसे आध्यात्मिक उत्कर्ष तथा श्रेष्ठ व्यक्तित्व प्रदान करती हैं । ये ध्रुव सम्भावनाएं अथवा शक्तियां ईश्वर - प्रदत्त ही हैं, परन्तु अजाग्रत तथा अप्रकट हैं । यह मनुष्य की स्वयं की साधना तथा क्षमता पर निर्भर करता है कि वह स्वयं में निहित इन सम्भावनाओं को जाग्रत तथा प्रकट कर पाता है या नहीं । कर्दम - देवहूति कथा में इन सम्भावनाओं अथवा शक्तियों को मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ तथा अथर्वा ऋषि कहकर इंगित किया गया है ।
स्वयं में निहित इन सम्भावनाओं अथवा सामर्थ्य को जाग्रत अथवा प्रकट करने के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य सर्वप्रथम श्रेष्ठ व्यक्तित्व की प्राप्ति हेतु लक्ष्यनिष्ठ हो । उसी लक्ष्य में रसपूर्ण हो, उसी में एकाग्र हो तथा उसी की प्राप्ति हेतु ईश्वर के प्रति प्रार्थना के भाव से भरा हो । ऐसी स्थिति होने पर ही लक्ष्य - प्राप्ति में सहायक साधन स्वतः सिमटते चले आते हैं । फिर एक न एक दिन मनुष्य उस लक्ष्य - प्राप्ति में सहायक एक ऐसी ज्ञानशक्ति अथवा विचारशक्ति से संयुक्त हो जाता है जो उसी के शुद्ध, ऊर्ध्वमुखी मन के फलस्वरूप उद्भूत होती है तथा दिव्यता को आमन्त्रित करने की अद्भुत सामर्थ्य रखती है । ऐसी ज्ञानशक्ति से सम्पन्न हुए उस लक्ष्यनिष्ठ मनुष्य में शनैः शनैः उन शक्तियों का प्रादुर्भाव होता है जो उसके अन्तस् में निष्क्रिय अथवा अजाग्रत पडी विभिन्न सम्भावनाओं (चैतन्य स्थितियों ) को क्रियाशील तथा जाग्रत बनाकर व्यक्तित्व को श्रेष्ठत्व प्रदान करती हैं । व्यक्तित्व के इस श्रेष्ठत्व प्राप्ति रूप लक्ष्य के पूर्ण हो जाने पर कालान्तर में मनुष्य के भीतर एक ऐसी चैतन्य शक्ति का भी अवतरण हो जाता है जो उसकी दिव्य विचार शक्ति को ही तत्त्वज्ञान से परिपूरित करके आत्म - साक्षात्कार में रूपान्तरित कर देती है ।
कथा की प्रतीकात्मकता
अब हम कथा के प्रतीकों को समझने का प्रयास करें ।
कर्दम - कर्दम ऋषि श्रेष्ठ व्यक्तित्व की प्राप्ति रूप लक्ष्य - निष्ठ चैतन्य(जीवात्मा) का प्रतीक है । 'कर्द' का अर्थ है - कूडा अथवा कीचड तथा 'म' का अर्थ है - मार्जन करने वाला । चूंकि लक्ष्य निष्ठ चैतन्य से युक्त मनुष्य ही लक्ष्येतर कूडे को हटाकर स्व लक्ष्य में स्थित होता है, इसलिए उसका कर्दम नाम युक्तियुक्त ही है ।
देवहूति - देवहूति ऊर्ध्वमुखी उच्च मन(स्वायम्भुव मनु ) से उत्पन्न हुई ज्ञानशक्ति की प्रतीक है । यह ज्ञानशक्ति दिव्यता को आमन्त्रित करती है, इसलिए देव + हूति कहलाती है । देव का अर्थ है - दिव्यता तथा हूति का अर्थ है - आमन्त्रित करने वाली ।
सरस्वती - इस शब्द का अर्थ है - स + रस +वती अर्थात् रस से युक्त । कर्दम ऋषि का सरस्वती के तट पर स्थित होना लक्ष्य के प्रति चैतन्य की रसपूर्ण स्थिति को इंगित करता है ।
बिन्दु सर - बिन्दु का अर्थ है - चेतना का चारों ओर से सिमटकर बिन्दुमात्र अर्थात् एकाग्र हो जाना । कर्दम ऋषि का बिन्दुसर तीर्थ में निवास चैतन्य की लक्ष्य में एकाग्रता को इंगित करता है ।
स्वायम्भुव मनु - जैसा कि पूर्व लेख में कहा जा चुका है, स्वायम्भुव मनु ऊर्ध्वमुखी उच्च मन का प्रतीक है ।
बर्हिष्मती - बर्हिष्मती (बर्हि +मती) में बर्हि शब्द बृह धातु से बना है । बृह का अर्थ है - वर्धन तथा मती का अर्थ है - युक्त । अतः बर्हिष्मती का अर्थ हुआ - वर्धन युक्त । स्वायम्भुव मनु का बर्हिष्मती नामक राजधानी में निवास करने का अर्थ हुआ - ऊर्ध्वमुखी उच्च मन का सतत् वर्धन से युक्त होना ।
विमान - कथा में कहा गया है कि कर्दम जी ने श्रेष्ठ विमान की रचना करके देवहूति के साथ उसमें विहार किया । चूंकि कर्दम लक्ष्य - निष्ठ चेतना का प्रतीक है, अतः लक्ष्य - निष्ठ चेतना अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए जिस श्रेष्ठ चिन्तन तथा संकल्प पर सतत् आरूढ रहती है - उस श्रेष्ठ चिन्तन अथवा संकल्प को ही यहां विमान कहकर इंगित किया गया प्रतीत होता है ।
कर्दम एवं देवहूति की कन्याएं - लक्ष्य - निष्ठ चैतन्य जब उच्च मन से प्रसूत देवहूति रूपी ज्ञानशक्ति से सम्यक रूपेण संयुक्त होता है, तब मनुष्य की प्रकृति कतिपय विशिष्ट शक्तियों को धारण कर लेती है, उन्हें ही यहां कर्दम - देवहूति की कन्याएं कहा गया है । ये कन्याएं हैं - कला, अनसूया, श्रद्धा, हविर्भू, गति, क्रिया, ख्याति, अरुन्धती तथा शान्ति ।
मरीचि आदि ऋषि - मरीचि आदि ऋषि चैतन्य की विशिष्ट स्थितियों को इंगित करते हैं । यहां उनका मात्र परिचयात्मक स्वरूप ही प्रस्तुत है -
१- मरीचि - मरीचि शब्द मृ धातु में ईचि प्रत्यय लगने पर बना है जिसका अर्थ है - मि|यतेऽसौ मरीचि:, अर्थात् जो मृत अवस्था में है, वह मरीचि है । इसका तात्पर्य यह है कि उद्भूत चैतन्य के उद्भव से पूर्व जो मृत अवस्था है - वह मरीचि है । मरीचि को कला नामक कन्या प्रदान की गई । कला का अर्थ है - स्थूल - सूक्ष्म शरीर की सामञ्जस्य पूर्ण अवस्था । इस कला नामक अवस्था विशेष की सहायता से ही मरीचि रूप मृत अवस्था का विकास सम्भव होता है, जिसका प्राथमिक रूप कश्यप तथा चरम रूप पूर्णिमा कहलाता है ।
२- अत्रि - अत्रि शब्द अ तथा त्रि नामक दो वर्णों के योग से बना है । अ का अर्थ है - नहीं तथा त्रि का अर्थ है - सत्, रज तथा तम नामक तीन गुण । जब तक मनुष्य की चेतना मनोमय कोश तक सीमित रहती है, तब तक ये तीन गुण पृथक् - पृथक् अवस्था में विद्यमान रहते हैं परन्तु जब चेतना मनोमय कोश से ऊपर उठकर विज्ञानमय कोश में पहुंचती है, तब ये तीनों गुण सिमटकर एकाकारता को प्राप्त हो जाते हैं । यह एकत्व स्थिति ही चैतन्य की अत्रि अवस्था है । अत्रि ऋषि को अनसूया नामक कन्या प्रदान की गई । अनसूया शब्द की निरुक्ति दो प्रकार से की जा सकती है । प्रथम प्रकार में अन +सूया तथा द्वितीय प्रकार में अन् + असूया ।
३- अङ्गिरा - मानुषी त्रिलोकी अर्थात् अन्नमय, प्राणमय तथा मनोमय कोशों के अंग - अंग में बसी हुई चेतना के समुच्चय को अङ्गिरा ऋषि कहा जाता है । अङ्गिरा ऋषि को श्रद्धा नामक कन्या प्रदान की गई । श्रद्धा शब्द शृत् + धा से बना है । शृत् एक अव्यय है जो 'धा' क्रिया में विशिष्टता लाता है । और धा का अर्थ है - धारण करना । अतः श्रद्धा का अर्थ हुआ - विशिष्ट को, गुणों को धारण करना । मानुषी त्रिलोकी की निम्नतर चेतना के लिए गुणों का संधारण आवश्यक है ।
४ - पुलस्त्य - पुलस्त्य शब्द वास्तव में पुरस्त्य है । 'पुर' शब्द में फैलना अर्थ वाली 'स्त्य' धातु के योग से यह बना है, जिसका अर्थ है - पुर अर्थात् मन - बुद्धि का फैलाव जो चैतन्य की बहिर्मुखता को इंगित करता है । पुलस्त्य ऋषि को हविर्भू नामक कन्या प्रदान की गई । हविर्भू(हवि: + भू) का अर्थ है - देवों को दिए जाने वाले दिव्य अन्न(हवि) से उत्पन्न । हविर्भू ही मन - बुद्धि रूपी पुर के फैलाव को नियन्त्रित करने में समर्थ हो सकती है ।
५- पुलह - ऐसा प्रतीत होता है कि पुलस्त्य की विपरीत स्थिति ही पुलह(पुर+ह ) है । पुर के फैलाव के विपरीत चैतन्य की वह स्थिति जिसमें पुर का हनन अथवा ह्रास हो - पुलह कहलाती है । अर्थात् चैतन्य की अन्तर्मुखता ही पुलह है । पुलह ऋषि को गति नाम की कन्या प्रदान करने का अर्थ है - चेतना की अन्तर्मुखता में सतत् गति बनी रहे ।
६ - क्रतु - क्रतु ऋषि का अर्थ है - वह कर्म या यज्ञ जो फल उत्पन्न नहीं करता । क्रतु ऋषि को क्रिया नामक कन्या प्रदान करने का अर्थ है - फल का अनुत्पादक कर्म सतत् बना रहे ।
७- भृगु - भृगु ऋषि का अर्थ है - कर्म फलों को दग्ध करने वाली चैतन्य स्थिति । भृगु को ख्याति नाम की कन्या प्रदान की गई । ख्याति का अर्थ है - प्रसिद्धि । भृगु जैसी उच्च स्थिति के साथ ख्याति का जुडना स्वाभाविक ही है ।
८- वसिष्ठ - निरन्तर ऊर्ध्व दिशा की ओर अग्रसर चेतना वसिष्ठ कहलाती है । वसिष्ठ को अरुन्धती नामक कन्या प्रदान की गई । अरुन्धती (अ+रुन्धती) का अर्थ है - रुकावट का न होना । ऊर्ध्व दिशा में गतिशील रहने के लिए अरुन्धती का होना अनिवार्य है ।
९- अथर्वा - विज्ञानमय कोश गत चैतन्य जब निम्नतर कोशों में अवरोहण करता है, तब अथर्वा कहलाता है । अथर्वा को शान्ति नामक कन्या प्रदान की गई । तात्पर्य यह है कि शुद्ध, निर्मल चैतन्य का निम्नतर कोशों में अवतरण शान्ति के माध्यम से ही परिलक्षित हो पाता है ।
उपर्युक्त वर्णित विशिष्ट चैतन्य स्थितियों (ऋषियों ) के साथ विशिष्ट प्रकृति - शक्तियों ( मन - बुद्धि की शक्तियों ) ने संयुक्त होकर विशिष्ट गुण रूपी सन्तानों को उत्पन्न किया । उन विशिष्ट गुण रूपी सन्तानों का वर्णन यद्यपि इस कथा प्रसंग में नहीं है, परन्तु इससे एक महत्त्वपूर्ण तथ्य इंगित होता है । तथ्य यह है कि अकेला चैतन्य विशिष्ट गुण रूपी सन्तान उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हो सकता क्योंकि वह बीज स्वरूप अथवा वीर्य स्वरूप अथवा पुरुष स्वरूप है । गुण रूपी सन्तान की उत्पत्ति तो मन - बुद्धि रूपी प्रकृति के संयुक्त होने पर ही सम्भव है । लौकिक - अलौकिक अथवा पार्थिव - अपार्थिव दोनों ही धरातलों पर यह नियम समान रूप से क्रियाशील है कि विस्तार प्रक्रिया चैतन्य और प्रकृति के सम्मिलन से ही सम्भव है । यहां तक कि परमात्मा को भी सृष्टि सृजन में परमात्मिका शक्ति का आश्रय लेना पडता है । अतः प्रस्तुत कथा से यह तथ्य अत्यन्त स्पष्ट होता है कि मनुष्य के भीतर विभिन्न चैतन्य स्थितियों के विद्यमान होते हुए भी वे स्थितियां तब तक जाग्रत होकर उच्चतर स्थितियों का निर्माण नहीं कर पाती, जब तक मन - बुद्धि की शक्तियों का उनके साथ संयोग नहीं हो जाता । अतः मनुष्य के लिए मन - बुद्धि की शक्तियों का विकास अपरिहार्य है । शेष क्रियाएं तो स्वयमेव घटित होती हैं ।
कर्दम ऋषि लक्ष्य - निष्ठ चैतन्य को इंगित करते हैं । लक्ष्य के प्राप्त होने तक ही लक्ष्य - निष्ठ चैतन्य क्रियाशील रहता है, लक्ष्य की पूर्णता होने पर वह स्वाभाविक रूप से लक्ष्य - निवृत्त ही है । चैतन्य की इस नियम आधारित लक्ष्य - निवृत्ति को ही कथा में कर्दम ऋषि का भगवान् की आज्ञा से वन में चले जाना कहा गया है ।
उपर्युक्त प्रकार से घटित प्रक्रिया के पश्चात् मनुष्य के शुद्ध मन से प्रसूत हुई देवहूति रूपी ज्ञानशक्ति की वही स्थिति नहीं रहती जो प्रक्रिया के घटित होने से पूर्व थी । मनुष्य की इस देवहूति रूपी ज्ञानशक्ति में एक ऐसी विशिष्ट चेतना अवतरित हो जाती है जो उसके रोम - रोम को कम्पायमान कर देती है । फलस्वरूप देवहूति रूपी ज्ञानशक्ति रूपान्तरित होकर स्व - स्वरूप को जानने (परम तत्त्व का साक्षात्कार ) में समर्थ हो जाती है । कम्पायमान करने वाली विशिष्ट अवतरित चेतना को ही कथा में कपिल भगवान् कहा गया है । कपिल (कम्प~ +ल) शब्द का अर्थ ही है - कम्प लाने वाली ।