इन्द्र और वृत्रासुर की कथा के माध्यम से आत्म -विस्मृति के कारण मनुष्य चेतना पर छाए हुए छद्म आवरण का चित्रण
- राधा गुप्ता
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श्रीमद् भागवत महापुराण के षष्ठ स्कन्ध में अध्याय ७ से अध्याय १२ तक वृत्रासुर की उत्पत्ति एवं वध की कथा विस्तार से वर्णित है । कथा पूर्ण रूप से प्रतीकात्मक है और आत्म - विस्मृति के कारण मनुष्य चेतना पर छाए हुए मन - वचन - कर्म के वैषम्य रूप छद्म आवरण के उदय एवं नाश से सम्बन्धित है । कथा का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है -
कथा का संक्षिप्त स्वरूप
अदिति के १२ पुत्रों में से एक थे इन्द्र । एक बार इन्द्र को त्रिलोकी का ऐश्वर्य प्राप्त कर घमण्ड हो गया और उस घमण्ड के कारण वे धर्ममर्यादा एवं सदाचार का उल्लंघन करने लगे । एक दिन इन्द्र शची के साथ सिंहासन पर विराजमान थे और वसु, रुद्र, आदित्य, मरुद्गण, ऋभुगण, विश्वेदेव, सिद्ध, चारण, गन्धर्व, विद्याधर, किन्नर, पक्षी, नाग आदि सभी उनकी सेवा एवं स्तुति कर रहे थे । उसी समय देवगुरु बृहस्पति जी सभाभवन में आए परन्तु इन्द्र ने उन्हें देखकर भी अनदेखा कर दिया । अतः बृहस्पति जी इन्द्र के ऐश्वर्य मद के दोष को समझते हुए तुरन्त वहां से अपने घर चले आए । इन्द्र को गुरुदेव के तिरस्कार का जैसे ही भान हुआ, उन्होंने गुरुदेव को मनाने का विचार किया परन्तु गुरुदेव अपने घर से निकलकर अन्तर्धान हो गए । गुरु के बिना स्वयं को असुरक्षित समझकर इन्द्र देवों सहित स्वर्ग की रक्षा का उपाय सोचने लगे परन्तु कोई उपाय न मिलने से अशान्त हो गए ।
देवराज इन्द्र और देवगुरु बृहस्पति जी की इस अनबन का पता लगते ही दैत्यों ने अपने गुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार देवों पर आक्रमण कर दिया जिससे देवों के मस्तक, जंघा, बाहु आदि अंग कट - कट कर गिरने लगे । अपनी इस दुर्दशा से पीडित देव इन्द्र के साथ ब्रह्मा जी की शरण में पहुंचे । ब्रह्मा जी ने तपस्वी ब्राह्मण बृहस्पति जी के तिरस्कार की भर्त्सना करते हुए अब उन्हें शीघ्र त्वष्टा के पुत्र तपस्वी ब्राह्मण विश्वरूप की शरण में जाने की आज्ञा दी और कहा कि यदि तुम लोग उनके (विश्वरूप के ) असुरों के प्रति प्रेम को क्षमा कर सकोगे और उनका सम्मान करोगे तो वे तुम्हारा कार्य अवश्य करेंगे ।
ब्रह्मा जी के परामर्शानुसार सभी देव विश्वरूप जी के पास गए और उनका सम्मान करके उनकी सम्मति मिलने पर उनका गुरु के रूप में वरण कर लिया । समर्थ विश्वरूप जी ने वैष्णवी विद्या के प्रभाव से दैत्यों से सम्पत्ति छीनकर इन्द्र को वापस दिला दी । विश्वरूप के तीन सिर थे । एक मुंह से वे सोमरस पीते, दूसरे से सुरा पीते और तीसरे से अन्न खाते । विश्वरूप के पिता त्वष्टा बारह आदित्य देवों में से एक थे, इसलिए वे यज्ञ के समय प्रत्यक्ष रूप से तो देवों को आहुति देते, परन्तु विश्वरूप की माता असुर कुल की थी, इसलिए वे यज्ञ के समय छिपे हुए असुरों को भी यज्ञभाग पहुंचाया करते । इन्द्र ने इसे देख लिया और क्रोध में भरकर उनके तीनों सिर काट लिए । इन्द्र यदि चाहते तो विश्वरूप के वध से लगी हुई ब्रह्महत्या को दूर कर सकते थे, परन्तु उन्होंने ऐसा करना उचित न समझा, वरन् हाथ जोडकर उसे स्वीकार कर लिया । अपनी शुद्धि प्रकट करने के लिए उन्होंने ब्रह्महत्या को चार भागों में बांटकर पृथ्वी, जल, स्त्री तथा वृक्षों को दे दिया । पृथ्वी ने यह वर लेकर कि मेरे ऊपर जो भी गड्ढा बने - वह शीघ्र भर जाए, जल ने यह वर लेकर कि मैं कभी न सूखूं, स्त्रियों ने यह वर लेकर कि हम पुरुषों के साथ सम्भोग करती रहें तथा वृक्षों ने यह वर लेकर कि हमारा जो अङ्ग कटे, वह उग आए - ब्रह्महत्या के चतुर्थ - चतुर्थ अंश को स्वीकार कर लिया ।
विश्वरूप की मृत्यु के बाद उनके पिता त्वष्टा ने दक्षिणाग्नि से इन्द्र के शत्रु एक तमोगुणी, भयानक वृत्रासुर को उत्पन्न किया जिसने उत्पन्न होते ही अपने तमोगुण से सारे लोकों को घेर लिया । देवता अपने अस्त्र - शस्त्र लेकर इस इन्द्र - शत्रु वृत्रासुर पर टूट पडे परन्तु इन्द्र - शत्रु वृत्रासुर उनके समस्त अस्त्र - शस्त्रों को निगल गया । देवता दीन - हीन उदास होकर भगवान् नारायण की शरण में पहुंचे और उनकी स्तुति करके उनसे वृत्रासुर के वध हेतु प्रार्थना की । भगवान् ने उन्हें दधीचि ऋषि के समीप जाकर उनसे उनका शरीर मांगने, विश्वकर्मा द्वारा उनके अंगों से एक आयुध तैयार कराने तथा उस आयुध के द्वारा वृत्रासुर का सिर काट देने की आज्ञा दी । भगवान् ने आश्वासन दिया कि वृत्रासुर के मर जाने पर उन्हें पुनः पूर्ववत् तेज, अस्त्र - शस्त्र तथा सम्पत्तियां प्राप्त हो जाएंगी ।
भगवान् की आज्ञानुसार देवता दधीचि ऋषि के समीप पहुंचे तथा देवों के प्रार्थना करने पर दधीचि ने उन्हें अपना शरीर समर्पित कर दिया । विश्वकर्मा ने दधीचि की अस्थियों से वज्र बनाकर इन्द्र को प्रदान किया । इन्द्र वज्र धारण कर वृत्रासुर के वध हेतु प्रस्थित हुए । दोनों ओर की सेनाओं में घोर युद्ध हुआ । अपने भाई विश्वरूप की मृत्यु से अत्यन्त क्रोधित हुआ वृत्रासुर इन्द्र को युद्ध हेतु ललकारने लगा ।
वृत्रासुर भगवद्भक्त था । वह जानता था कि जिस पक्ष में श्रीहरि रहते हैं, उधर ही विजय, लक्ष्मी और सारे गुण निवास करते हैं । इसलिए वह भी इन्द्र के वज्र से मरकर अपने विषयभोग रूप फन्दे को काटना तथा भगवान् के भक्तजनों से प्रेम - मैत्री चाहता था । वृत्रासुर के इस भगवद्भाव से इन्द्र बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने वज्र से वृत्रासुर की दोनों भुजाएं काट दी और वृत्रासुर मरकर भगवत् - स्वरूप में लीन हो गया । वृत्रासुर के वध से इन्द्र पर ब्रह्महत्या का जो आक्रमण हुआ, उसे ऋषियों ने अश्वमेध यज्ञ द्वारा दूर कर दिया और इन्द्र पुनः समस्त पापों से छूटकर पूजनीय हो गए ।
कथा की प्रतीकात्मकता
कथा में आए हुए प्रतीकों को समझकर ही कथा को समझना सम्भव है । अतः पहले एक - एक प्रतीक को समझने का प्रयास करें -
१. अदिति
जब मनुष्य की चेतना इस स्थिति में स्थित होती है कि मैं एक शुद्ध - बुद्ध शान्त आनन्दस्वरूप आत्मा हूं और इस देह( स्थूल - सूक्ष्म - कारण ) के माध्यम से अभिव्यक्त हो रहा हूं - तब वह आत्मा और शरीर के योग में स्थित चेतना अखण्डित होती है और अदिति कही जाती है । आधुनिक शब्दावली में इस अदिति को ही आत्म - चेतना(soul consciousness) कहा जाता है । इस आत्म - चेतना अथवा अखण्डित चेतना की स्थिति में व्यक्तित्व जिन १२ प्रकार के विशिष्ट गुणों से संयुक्त हो जाता है, उन्हें ही अदिति के १२ पुत्र अथवा १२ आदित्य कहकर सम्बोधित किया जाता है । वे १२ गुण(पुत्र) हैं -
१. विवस्वान् अर्थात् वासना रहितता
२. धाता अर्थात् समग्र अस्तित्व के प्रति स्वीकार्यता
३. विधाता अर्थात् स्वीकार्यता के कारण अपने भाग्य का निर्माता होना
४. पूषा अर्थात् पोषित करने का गुण
५. त्वष्टा अर्थात् व्यक्तित्व की काटछांट करके उसका नव - निर्माण करने का गुण
६. सविता अर्थात् उत्पादकता का गुण?
७. भग अर्थात् पूर्वजन्म के कर्म रूप बीजों से कृषि करने का गुण
८. अर्यमा अर्थात् आसुरी राज्य पर आधिपत्य होने के कारण यम - नियम रहित स्थिति?
९. मित्र अर्थात् अपने देवभाग की रक्षा करने के कारण सबका मित्र होने का गुण
१०. वरुण अर्थात् अपनी दैवी और आसुरी दोनों प्रकार की चेतना का अधिपति होने का गुण
११. वामन अर्थात् आत्मस्थ मन की सूक्ष्मता का गुण
१२. इन्द्र अर्थात् इन्द्रियों का अधिपति होने के कारण स्थिर एवं शुद्ध मन से युक्त होने का गुण
२. इन्द्र
पुराणों में कहीं - कहीं इन्द्र शब्द आत्मा का वाचक भी है और परमात्मा का भी । परन्तु प्रस्तुत कथा में इन्द्र का अर्थ है - इन्द्रियों का अधिपति मन । मनुष्य जब आत्म - चेतना अथवा अखण्डित - चेतना (soul consciousness) में स्थित रहता है, तब आत्मा(self) का नियन्त्रण बुद्धि पर, बुद्धि का नियन्त्रण मन पर तथा मन का नियन्त्रण सभी इन्द्रियों - पांचों ज्ञानेन्द्रियों तथा पांचों कर्मेन्द्रियों पर स्वाभाविक रूप से रहता है । इन्द्रियों पर मन का नियन्त्रण रहने से इन्द्रियां तथा उनके विषय मन का कर्षण नहीं कर पाते, अतः मन स्थिर एवं शुद्ध भाव को प्राप्त हो जाता है । इसी स्थिरता एवं शुद्धता की सहायता से जीवन में सदाचार और धर्म की मर्यादा स्थापित रहती है अथवा ऐसा भी कह सकते हैं कि स्थिर - शुद्ध मन की सहायता से मनुष्य स्व - स्वरूप को पहचानता हुआ परमसत्ता से सम्बन्ध स्थापित करने में समर्थ हो जाता है । परन्तु यही मन अर्थात् इन्द्र यदि इन्द्रियों का अधिपति होने के अहंकार से युक्त हो जाए अर्थात् मनुष्य इन्द्रियों पर नियन्त्रण रूप श्रेष्ठता प्राप्ति के अहंकार को धारण कर ले, तब वह अहंकार जीवन में दुष्परिणामों की जिस लम्बी शृङ्खला को जन्म देता है - उस का चित्रण प्रस्तुत कथा के माध्यम से किया गया है ।
३. बृहस्पति
यह शब्द बृह तथा पति नामक दो शब्दों से मिलकर बना है । पौराणिक साहित्य में पति शब्द 'लक्ष्य' का वाचक है तथा बृह का अर्थ है - बडा । अतः बृहस्पति का अर्थ हुआ - बडा लक्ष्य । मनुष्य के जीवन का बडा लक्ष्य है - स्वयं के स्वरूप(आत्म - स्वरूप) को पहचान कर परमात्म स्वरूप में स्थित हो जाना अर्थात् मनुष्य सबसे पहले स्वयं के स्वरूप को इस रूप में पहचाने कि मैं स्वयं प्रकाश, अजर, अमर, अविनाशी आत्मा(being) हूं तथा फिर इस आत्म - स्वरूप में स्थित रहकर प्रत्येक प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति के प्रति पूर्ण स्वीकार भाव रखते हुए प्रेमपूर्वक जीवन जिए ।
कथा में बृहस्पति को देवगुरु के रूप में स्मरण किया गया है । इसका तात्पर्य यह है कि स्थिर, शुद्ध मन से युक्त मनुष्य (इन्द्र आदि देवगण) उपर्युक्त वर्णित बृहत् लक्ष्य(बृहस्पति) को सदैव अपने सम्मुख रख कर कार्य करते हैं । परन्तु स्थिर - शुद्ध मन(इन्द्र) जब अभिमान से युक्त होता है, तब उपर्युक्त वर्णित बृहत् लक्ष्य मनुष्य के जीवन से तिरोहित हो जाता है जिसे कथा में बृहस्पति का अन्तर्धान हो जाना कहा गया है ।
इन्द्रियाधिपति स्थिर - शुद्ध मन अर्थात् इन्द्र जब तक आत्मा - परमात्मा से योग बनाए रखता है अर्थात् बृहस्पति का सम्मान करता है, तब तक मनुष्य जीवन में सुख - शान्ति रूपी स्वर्ग पूर्णतः सुरक्षित बना रहता है परन्तु अहंकार के आविर्भाव से आत्म - परमात्म - योग के विच्छिन्न होते ही यह स्वर्ग असुरक्षित हो जाता है क्योंकि देह को ही सर्वस्व मानने वाले मन अर्थात् शुक्राचार्य के आदेश से दैहिक कामना, वासना, इच्छा रूपी दैत्य प्रबल हो उठते हैं जिससे प्रेम, समत्व, दया, करुणा प्रभृति दिव्य गुण कट - कट कर गिरने लगते हैं । इसे ही कथा में यह कहकर इंगित किया गया है कि इन्द्र और बृहस्पति की अनबन का पता लगते ही दैत्यों ने शुक्राचार्य के आदेशानुसार देवों पर आक्रमण कर दिया जिससे देवों के अंग कट - कट कर गिरने लगे ।
कहने का तात्पर्य यह है कि आत्म - चेतना की स्थिति में इन्द्रियाधिपति स्थिर - शुद्ध मन(इन्द्र) का आत्मा - परमात्मा से जो योग बना रहता है, वही योग अहंकार के प्रादुर्भाव से सर्वथा विच्छिन्न हो जाता है और आत्म - चेतना देह - चेतना से अभिभूत होने लगती है ।
४. त्वष्टा
जैसा कि 'अदिति' शब्द के अन्तर्गत कहा जा चुका है - अदिति अर्थात् अखण्डित चेतना की स्थिति में रहते हुए मनुष्य के भीतर जो विवस्वान् प्रभृति १२ गुण प्रादुर्भूत होते हैं, उनमें से एक है - त्वष्टा । त्वष्टा शब्द वेदों में प्रकट हुआ है और इसका अर्थ है - आत्मा की वाक् शक्ति अर्थात् प्रकृति । सरल शब्दों में कहें तो त्वष्टा मनुष्य के भीतर स्थित उच्च कोटि की वह प्रकृति शक्ति है जो व्यक्तित्व की काटछांट करके उसका नवनिर्माण करने में समर्थ है । इसे प्रज्ञा भी कहा जा सकता है । यह त्वष्टा अर्थात् उच्च कोटि की प्रकृति शक्ति अपनी रचनाधर्मिता की सहायता से मनुष्य के भीतर विश्वरूप के विचार को उत्पन्न करती है, इसलिए कथा में विश्वरूप को त्वष्टा(प्रकृति) का पुत्र कहकर इंगित किया गया है ।
५. विश्वरूप
विश्वरूप का अर्थ है - विश्व के रूप में एक ही भगवत्सत्ता का विराजित होना । अर्थात् अनन्त नाम - रूपों में जो यह विश्व(जगत्) प्रतीत हो रहा है, उन सब नाम - रूपों में एक ही परम सत्ता विराज रही है - इस विचार को धारण करके मनुष्य अपने जीवन में तदनुसार ही व्यवहार करे । कथा संकेत करती है कि मनुष्य के मन की प्रथम सामर्थ्य तो यही है कि वह आत्म - स्वरूप को पहचानकर परमात्मस्वरूप से योग स्थापित कर ले परन्तु अहंकार के उद्भव से यदि इस सामर्थ्य का लोप हो रहा हो, तब दूसरा उपाय है - इस विचार को अत्यन्त दृढता पूर्वक धारण करना कि विश्व के अनन्त नाम - रूपों में एक ही सत्ता विराजमान है । ऐसा करके मनुष्य राग - द्वेष, काम, क्रोध, लोभ प्रभृति आसुरी (नकारात्मक) शक्तियों से बचा रहकर अपनी समता, प्रेम, शान्ति, सुख प्रभति दैवी(सकारात्मक) शक्तियों की रक्षा कर सकता है । इसी तथ्य को कथा में विश्वरूप को गुरु के रूप में वरण करने तथा विश्वरूप द्वारा वैष्णवी विद्या के प्रभाव से देवों की सम्पत्ति सुरक्षित करने के रूप में व्यक्त किया गया है ।
कथा में कहा गया है कि विश्वरूप के तीन सिर थे और असुरों के प्रति भी प्रेम होने के कारण वे उन्हें भी यज्ञभाग पहुंचाया करते थे । अतः इन्द्र ने उनका वध कर दिया । इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य की त्रिगुणात्मिका प्रकृति सत् , रज, तम नामक तीनों गुणों की सहायता से ही विभिन्न नाम - रूपों का निर्माण करती है । इन नाम - रूपों में दैवी - आसुरी सभी स्वरूप समाविष्ट हैं । परम सत्ता अथवा उसका प्रकाश बिना किसी भेदभाव के सभी स्वरूपों में - चाहे वह दैवी हो अथवा आसुरी, समान रूप से अधिष्ठित है । परन्तु मनुष्य का अभिमानी मन विश्व - रूपों में व्यापक इस समत्व को स्वीकार नहीं कर पाता । इसीलिए विश्वरूप के विचार के माध्यम से परम सत्ता के दर्शन का जो सुयोग हमारी उच्च प्रकृति हमें प्रदान करती है - वह सुयोग अभिमानी मन के कारण नष्ट हो जाता है । इसे ही कथा में इन्द्र(अभिमानी मन) द्वारा विश्वरूप का वध कह कर इंगित किया गया है ।
६. इन्द्र द्वारा ब्रह्महत्या की स्वीकृति और उसका वितरण
कथा में कहा गया है कि अभिमान के वशीभूत इन्द्र ने विश्वरूप के वध से उत्पन्न ब्रह्महत्या को हाथ जोडकर स्वीकार कर लिया और अपनी शुद्धि प्रकट करने के लिए उसे चार भागों में बांटकर पृथ्वी, जल, स्त्रियों तथा वृक्षों को दे दिया ।
इस कथन द्वारा आत्म - चेतना(self consciousness) के देह - चेतना(body consciousness) में रूपान्तरण को दर्शाया गया है । आत्म - चेतना में स्थित मनुष्य अभिमान का आविर्भाव हो जाने पर सबसे पहले आत्म - स्वरूप का तिरस्कार(विस्मरण) करता है, उसके बाद विश्वरूप का भी वध कर देता है, वध के लिए कोई पश्चात्ताप, प्रतीकार न करके उसे सहर्ष स्वीकार कर लेता है तथा यह सब करते हुए भी अन्त में स्वयं को शुद्ध ही समझता हुआ पूर्ण रूप से देह - भाव में स्थित हो जाता है । देह - भाव के विस्तार की प्रक्रिया चार रूपों में घटित होती है -
१. देह - चेतना में स्थित होने पर मनुष्य को जीवन में जो भी दुःख प्राप्त होता है, वह दुःख यह संकेत करने के लिए आता है कि मनुष्य स्वयं को पहचानकर अपने जीवन - व्यवहार में परिवर्तन लाए । परन्तु अभिमानी मनुष्य इस संकेत को न पहचानकर जीवन - व्यवहार में परिवर्तन नहीं लाता प्रत्युत समय के साथ - साथ वह दुःख स्वयं समाप्त हो जाता है । इस तथ्य को कथा में मन - बुद्धि रूपी पृथ्वी में पडे हुए गड्ढे का जल्दी भर जाना कहा गया है ।
२. देह - चेतना में स्थित होने पर तृष्णा, आसक्ति, मोह, ममता के निर्झर (झरने) मनश्चेतना में निरन्तर झरते ही रहते हैं । इसे ही जल का कभी न सूखना कहा गया है ।
३. देह - चेतना में स्थित होने पर सभी इन्द्रियां अपने - अपने विषयों का स्वच्छन्द उपभोग करती रहती हैं । इसे ही कथा में स्त्रियों का पुरुष के साथ सम्भोग करना कहा गया है ।
४. देह - चेतना में स्थित होने पर मनुष्य अपने मन में उद्भूत हुई एक कामना की पूर्ति करता है तो शीघ्र दूसरी कामना जन्म ले लेती है । इसे ही कथा में वृक्ष के तने का कटकर पुनः उग आना कहा गया है ।
७. त्वष्टा द्वारा वृत्रासुर का निर्माण
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, त्वष्टा रूपी उच्च प्रकृति शक्ति मनुष्य व्यक्तित्व का नव - निर्माण करना चाहती है । इसीलिए वह अपनी रचनाधर्मिता द्वारा पहले विश्वरूप (विश्व - रूपों में विद्यमान परमात्म सत्ता ) के विचार का निर्माण करती है परन्तु मन के अभिमान युक्त होने के कारण जब यह उपाय भी निष्फल हो जाता है , तब वह त्वष्टा अर्थात् प्रकृति शक्ति अपनी दक्षता का आश्रय लेकर एक अन्य उपाय का सृजन करती है , जिसे कथा में वृत्रासुर नाम दिया गया है । वृत्रासुर शब्द वृत्र और असुर नामक दो शब्दों के योग से बना है । वृत्र शब्द वास्तव में वृत है, जो आच्छादन अर्थ वाली वृ धातु से निष्पन्न हुआ है । इस आधार पर वृत्रासुर वह आसुरी (नकारात्मक ) शक्ति है जो व्यक्तित्व को आच्छादित करती अर्थात् ढक लेती है ।
इस वृत्रासुर (नकारात्मक शक्ति ) का ठीक - ठीक अनुसन्धान उसका वध करने वाले उपाय के आधार पर ही किया जा सकता है । कथा में कहा गया है कि वृत्रासुर का वध दधीचि ऋषि की अस्थियों से निर्मित वज्र द्वारा किया गया । दधीचि ऋषि मनुष्य के विज्ञानमय कोश की चेतना का प्रतीक है । अस्थि शब्द 'अस्ति' का वाचक है और वज्र कठोर दृढ संकल्प का प्रतीक है (इसका विस्तार से विवेचन आगे किया जाएगा ) । अतः इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि वृत्रासुर वह आसुरी शक्ति है जब मनुष्य में मन - वचन - कर्म अथवा भाव - ज्ञान - क्रिया की एकता नहीं रहती अर्थात् मनुष्य का संकल्प अथवा विचार कुछ और होता है, वह कहता कुछ और है और करता कुछ और ही है । भाव - ज्ञान - क्रिया अथवा मन - वचन - कर्म की यह विषमता एक छद्म आवरण बनकर व्यक्तित्व को घेर लेती है और इस विषमता के कारण मनुष्य स्वयं के प्रति भी तथा सम्बन्धों में व्यवहार करते हुए भी अशुचिता ( अपवित्रता ) के एक ऐसे वृत्त में फंस जाता है जो उसे निरन्तर दु:खों की ओर ले जाता है । मन - वचन - कर्म के वैषम्य से उत्पन्न अशुचिता का यह वृत्त इतना सघन और सूक्ष्म होता है कि यह मनुष्य में विद्यमान उसके अनेक दिव्य गुणों को भी ग्रस लेता है, जिसे कथा में वृत्रासुर द्वारा देवों के समस्त अस्त्र - शस्त्रों का निगलना कहकर इंगित किया गया है । यहां यह स्मरण रखना आवश्यक है कि त्वष्टा अर्थात् उच्च प्रकृति शक्ति सबसे पहले सुख की स्थिति में ही विश्वरूप के माध्यम से मनुष्य को आत्म - योग के लिए प्रेरित करती है , परन्तु अभिमानी मनुष्य जब उस उपाय को ठुकरा देता है, तभी त्वष्टा अर्थात् प्रकृति शक्ति मनुष्य के व्यक्तित्व को वृत्रासुर रूपी छद्म आवरण से युक्त करके दु:खों में डालकर उसका मार्ग प्रशस्त करती है क्योंकि दु:खों में डूबा हुआ मनुष्य दु:खों से छटपटाकर ही अन्तर्मुखी होकर भगवान् की शरण ग्रहण करता है ।
८. देवों द्वारा दधीचि ऋषि की अस्थियों को धारण करना
वेदों में जो दध्यङ्ग शब्द प्रकट हुआ है, उसे ही पुराणों में दधीचि नाम दिया गया है । अतः दधीचि को समझने के लिए दध्यङ्ग को समझना होगा ।
वैदिक अनुसन्धान के आधार पर आनन्दमय कोश के आनन्द को पयः(दुग्ध) कहते हैं । जब इस पयः का अवतरण विज्ञानमय कोश में होता है, तब वह पयः अर्थात् दुग्ध ही विकृत होकर दधि बन जाता है । विज्ञानमय कोश की जो चेतना इस दधि को धारण करती है, वही दध्यङ्ग अथवा दधीचि है । इस प्रकार विज्ञानमय कोश की चेतना दधीचि ऋषि है और दधीचि ऋषि की अस्थियों को धारण करने का अर्थ है - मनोमय कोश से ऊपर उठकर विज्ञानमय कोश के अस्तित्व को धारण करना । मन - वचन - कर्म अथवा भाव - ज्ञान - क्रिया शक्तियों की एकाकारता ही विज्ञानमय कोश का अस्तित्व है । अर्थात् जब तक मनुष्य मनोमय कोश में स्थित रहता है, तब तक उसकी मन - वचन - कर्म अथवा भाव - ज्ञान - क्रिया शक्तियां पृथक् - पृथक् होकर बिखरी रहती हैं, परन्तु मनोमय कोश से ऊपर उठकर विज्ञानमय में पहुंचने पर ये तीनों पृथक् - पृथक् शक्तियां एकाकारता को प्राप्त होकर एक हो जाती हैं । वेदों में इन तीनों शक्तियों को मन - प्राण - वाक् भी कहा गया है ?
कहने का अभिप्राय यह है कि प्रत्येक मनुष्य के भीतर ये तीन शक्तियां विद्यमान रहती हैं । किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए इन तीनों ही शक्तियों का परस्पर समन्वित होकर एकनिष्ठ होना परमावश्यक है । परन्तु सामान्य जीवन में देखा जाता है कि मनुष्य के भीतर ये तीनों ही शक्तियां न तो परस्पर समन्वित होती हैं और न एकनिष्ठ ही, अर्थात् मनुष्य मन - वचन - कर्म की शुचिता का पालन नहीं कर पाता । वह सोचता कुछ और है, कहता कुछ और है और करता कुछ और है । यही अशुचिता उसे एक दुःख से दूसरे दुःख में गिराती रहती है । आश्चर्य की बात तो यह है कि मन - वचन - कर्म की यह अशुचिता मनुष्य को इस भांति ढक लेती है कि उसे स्वयं ही अपने ऊपर पडे हुए इस छद्म आवरण का भान नहीं हो पाता । केवल दु:खों के आक्रमण से त्रस्त होने पर ही वह अन्तर्मुख होता है और स्व - स्वरूप को तथा जगत को पहचानने की ओर अग्रसर होता है । इसे ही कथा में वृत्रासुर से त्रस्त देवों का भगवान् की शरण में पहुंचना कहा गया है ।
९. अस्थियों से वज्र का निर्माण
वज्र शब्द का अर्थ है - वर्जन करने वाला । मनुष्य का कठोर दृढ संकल्प ही वह वज्र है जिसकी सहायता से वह अपने ही ऊपर छाए हुए मन - वचन - कर्म के वैषम्य रूपी वृत्रासुर का नाश करने में समर्थ हो सकता है और यह कठोर दृढ संकल्प रूपी वज्र तभी निर्मित होता है जब मनुष्य मनोमय स्थिति से ऊपर उठकर विज्ञानमय (शुद्ध, पवित्र, ज्ञानमय) स्थिति को धारण करे ।
१०. वृत्रासुर की भगवद्भक्ति
कथा में वृत्रासुर को असुर होते हुए भी भगवद्भक्त कहा गया है । भक्त का अर्थ है - भगवद् इच्छा के अनुसार चलने वाला । इसका अभिप्राय यह है कि भगवद् इच्छा (त्वष्टा अथवा प्रकृति शक्ति ) से प्रेरित होकर ही वृत्रासुर (मन - वचन - कर्म की विषमता का आवरण ) व्यक्ति के कल्याण के लिए उसके व्यक्तित्व को आवृत करता है परन्तु मनुष्य जब जाग्रत हो जाता है और मन - वचन - कर्म के ऐक्य रूप सुदृढ संकल्प को धारण कर लेता है, तब वह आवरण लक्ष्य पूरा हो जाने से स्वेच्छा से, स्वयमेव समाप्त भी हो जाता है । आसुरी भाव की यह आवृत्ति और निवृत्ति ही वृत्रासुर का 'भगवद्भक्त' होना है ।
कथा का तात्पर्य
कथा को सम्यक् रूपेण हृदयंगम करने के लिए उसे तीन भागों में बांट लेना उपयोगी होगा । कथा का प्रथम भाग और केन्द्र बिन्दु है - व्यक्तित्व का वृत्रासुर अर्थात् मन - वचन - कर्म की विषमता से घिर जाना । दूसरा भाग है - इस वृत्रासुर को आमन्त्रित करने वाली स्थिति विशेष जिसे कथा में इन्द्र के अहंकार युक्त होने पर बृहस्पति के अन्तर्धान और विश्वरूप के वध द्वारा इंगित किया गया है और तीसरा भाग है - वृत्रासुर से मुक्ति जिसे कथा में दधीचि ऋषि की अस्थियों से निर्मित वज्र द्वारा वृत्रासुर का वध कहकर निरूपित किया गया है ।
मनुष्य के जीवन में वैचारिक और भावनात्मक स्तर पर जो दुःख आते हैं - उनका एक प्रमुख कारण है - जीवन व्यवहार में मन - वचन - कर्म की एकता का अभाव । मनुष्य जो भी सोचता है, वैसा कहता नहीं है अथवा जैसा कहता है वैसा करता नहीं है । यह विषमता मनुष्य को उसके लक्ष्य - भेद से भटकाती है और उसके पवित्रता, प्रेम, शान्ति प्रभृति दिव्य गुणों को भी निगल जाती है । इस सबका परिणाम होता है - दुःख । यह दुःख अपने प्राथमिक चरण में तो मन और भाव के स्तर पर ही विद्यमान होता है परन्तु मन तथा भाव का प्रभाव शनैः - शनैः स्थूल शरीर पर भी पडता है और तब दु:खों से अत्यन्त त्रस्त होकर ही मनुष्य अन्तर्मुखी होकर भगवत्सत्ता की ओर प्रवृत्त होता है ।
इस वृत्रासुर से पीडित होने का कारण है - आत्म - चेतना (soul consciousness) का देह - चेतना(body consciousness) में रूपान्तरित हो जाना । अहंकार के कारण पहले मनुष्य स्व - स्वरूप का विस्मरण कर देता है तथा फिर अनन्त नाम - रूपों में फैली हुई जगत रूप भगवत्सत्ता का भी अनादर(तिरस्कार) करता है । तब पूर्ण रूप से देह - चेतना में स्थित हो जाने के कारण वह इस वृत्रासुर(मन - वचन - कर्म की विषमता अथवा पृथक्ता) से घिर जाता है क्योंकि अब अनुग्रही प्रकृति के पास मनुष्य का कल्याण करने के लिए यही एक साधन बचता है कि उसे दु:खों में डालकर भगवत् - स्मृति की ओर अग्रसर किया जाए ।
भगवत्स्मृति की ओर अग्रसर होकर ही वृत्रासुर से मुक्त होने का मार्ग प्रशस्त होता है । तभी मनुष्य समझ पाता है कि मन के सामान्य धरातल पर जीवन जीते हुए वृत्रासुर (मन - वचन - कर्म की विषमता ) से मुक्त नहीं हुआ जा सकता । इसके लिए प्रयत्नपूर्वक विशेष ज्ञान और विशेष शुचिता (शुद्धता) को धारण करना अनिवार्य है और इस ज्ञान तथा शुचिता का संधारण मनुष्य के वज्र सदृश कठोर दृढ संकल्प से ही संभव है । ज्ञान और शुचिता से सम्पन्न होकर मन का अभिमान गलित होने लगता है और धीरे - धीरे पूर्णतः शुद्ध होकर अपने पूर्व शुद्धतम स्वरूप को प्राप्त हो जाता है ।