समुद्र मन्थन की कथा के माध्यम से विचार मन्थन की प्रक्रिया का विवेचन

- राधा गुप्ता

कथा का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है कि देवों और दैत्यों ने समुद्र मन्थन के लिए अपनी शक्ति से मन्दराचल को उखाड लिया और उसे समुद्र तट की ओर ले चले । परन्तु सोने का यह पर्वत बहुत ही भारी था, इसलिए उठा न सकने के कारण उन्होंने उसे रास्ते में ही पटक दिया । देवों और दैत्यों के उत्साह को भंग हुआ देखकर भगवान् सहसा प्रकट हुए और उन्होंने मन्दराचल को अपने साथ गरुड पर रखकर उसे समुद्र तट पर पहुंचा दिया । वासुकि नाग को अमृत प्रदान का वचन देकर देवों और दैत्यों ने उसे भी अपने कार्य में सम्मिलित कर लिया । अब सबने मिलकर वासुकि नाग को नेती के समान मन्दराचल में लपेटकर समुद्र मन्थन प्रारम्भ किया । जब समुद्र मन्थन होने लगा तो बलवान देवों और दैत्यों के पकडे रहने पर भी अपने भार की अधिकता और नीचे कोई आधार न होने के कारण मन्दराचल समुद्र में डूबने लगा । तब भगवान ने तुरन्त कूर्म का रूप धारण किया और समुद्र के जल में प्रवेश करके मन्दराचल को ऊपर उठा दिया । उत्साहित देवता और दैत्य पुनः समुद्र मन्थन करने लगे और मन्दराचल कूर्म भगवान की पीठ पर घूमने लगा ।

          समुद्र मन्थन सम्पन्न करने के लिए भगवान ने असुरों में असुर रूप से, देवों में देव रूप से और वासुकि नाग में निद्रा रूप से प्रवेश किया । वे मन्दराचल पर्वत के ऊपर दूसरे पर्वत के समान बनकर उसे अपने हाथों से दबा कर स्थित हो गए । समुद्र मन्थन से पहले - पहल हालाहल नाम का अत्यन्त उग्र विष निकला । उसकी शान्ति के लिए शिव ने उस विष का पान कर लिया । वह विष जल का पाप ही था, जिससे उनका कण्ठ नीला पड गया परन्तु शिव के लिए वह भूषण रूप हो गया । पुनः समुद्र मन्थन से कामधेनु प्रकट हुई जिसे यज्ञोपयोगी घी, दूध आदि प्राप्त करने के लिए ऋषियों ने ग्रहण किया । इसके बाद उच्चैःश्रवा घोडा निकला जिसे बलि ने लेने की इच्छा प्रकट की । तदनन्तर ऐरावत नाम का श्रेष्ठ हाथी निकला जिसके उज्जवल वर्ण के बडे - बडे चार दांत थे । तत्पश्चात् कौस्तुभ मणि प्रकट हुई जिसे अजित भगवान् ने लेना चाहा । इसके बाद कल्पवृक्ष निकला जो याचकों की इच्छाएं पूर्ण करने वाला था । तत्पश्चात् अप्सराएं प्रकट हुई जो अपनी शोभा से देवताओं को सुख पहुंचाने वाली हुई । तदनन्तर शोभा की मूर्ति भगवती लक्ष्मी देवी प्रकट हुई जो भगवान् की नित्य शक्ति हैं । देवता, असुर, मनुष्य सभी ने उन्हें लेना चाहा परन्तु लक्ष्मी जी ने चिर अभीष्ट भगवान् को ही वर के रूप में चुना ।

          तत्पश्चात् समुद्र मन्थन करने पर कमलनयनी कन्या के रूप में वारुणी देवी प्रकट हुई जिसे दैत्यों ने ले लिया । उसके पश्चात् अमृत कलश लेकर धन्वन्तरि भगवान् प्रकट हुए जो आयुर्वेद के ज्ञाता और भगवान् के अंशांश अवतार थे । अब दैत्य धन्वन्तरि से बलात् अमृत कलश छीन ले गए जिससे देवताओं को विषाद हुआ और वे भगवान् की शरण में गए । भगवान् ने अद्भुत एवं अवर्णनीय मोहिनी रूप धारण किया । उस मोहिनी रूप पर मोहित हुए दैत्यों ने सुन्दरी से झगडा मिटा देने की प्रार्थना की और उसकी परिहास भरी वाणी पर ध्यान न देकर उसके हाथ में अमृत कलश दे दिया । मोहिनी ने दैत्यों को अपने हाव - भाव से ही अत्यन्त मोहित करते हुए उन्हें अमृत न पिलाकर देवताओं को अमृत पिला दिया ।

कथा का अभिप्राय

अपने वास्तविक स्वरूप को, अपने होने को जान लेना, पहचान लेना कथा में 'अमृत निकालना' कहा गया है । अमृत का अर्थ ही है - जो मरण धर्म से परे अजर, अमर, अविनाशी है और वह अविनाशी, अमृत तत्त्व केवल आत्मा ही है । आत्म स्वरूप को जानने के लिए अपने ही विचारों का मन्थन करना आवश्यक है जिसे कथा में समुद्र मन्थन कहकर इंगित किया गया है । विचारों के मन्थन का अभिप्राय है - अपने आप को देखना, अपने संकल्पों को देखना, अपने भीतर विद्यमान उन अनेक मान्यताओं, धारणाओं, पूर्व संचित अनुभवों तथा वर्तमान सूचनाओं पर आधारित विचारों को देखना और उन पर चिन्तन करना जिनके कारण मनुष्य आत्म स्वरूप को विस्मृत करके देहभाव में स्थित हो गया है । देह चेतना के संस्कार इतने गहरे हैं कि आत्मस्वरूपता 'मैं आत्मा हूं' का भाव स्मृति से बार - बार छूट जाता है । इस छूटने को ही कथा में मन्दराचल पर्वत का डूबना कहकर इंगित किया गया है । परन्तु मनुष्य इससे घबराए नहीं, क्योंकि अपने वास्तविक स्वरूप (आत्मस्वरूप) में अवस्थित होने के लिए विचार मन्थन की सम्पूर्ण यात्रा विशेष शक्ति और श्रम की मांग करती है ।

          विचार मन्थन की प्रक्रिया से मनुष्य चार प्रकार से लाभान्वित होगा । पहला लाभ यह होगा कि वह चेतना के विस्तार और संकोच की प्रक्रिया को सीख लेगा । देह चेतना में विद्यमान रहने के कारण मनुष्य स्वयं को तथा दूसरे को भी देहस्वरूप मानकर जब व्यवहार करता है, तब उस विस्तारित चेतना की स्थिति में प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होनी स्वाभाविक है । परन्तु आत्मस्वरूप का स्मरण करके चेतना को संकुचित करने का यदि मनुष्य को अभ्यास हो जाएगा तो प्रतिक्रिया के संकट को उपस्थित देखकर वह तुरन्त देहचेतना के विस्तार से सिमटकर आत्मचेतना के संकुचन में स्थित होकर उस प्रतिक्रिया के संकट से अपनी रक्षा कर लेगा । इस प्रक्रिया को कथा में भगवान् का कूर्म अवतार ग्रहण करना कहा गया है । जैसे कूर्म किसी संकट के उपस्थित होने की आशंका होते ही तुरन्त अपने सभी अंगों को सिकोडकर उस संकट से अपनी रक्षा कर लेता है, उसी प्रकार मनुष्य भी जीवन में विभिन्न भूमिकाओं को निभाते हुए प्रतिक्रिया रूपी संकट के आने की आशंका होते ही तुरन्त देह चेतना रूप विस्तार से आत्म - चेतना रूप संकोच में आकर प्रतिक्रिया की विषम स्थिति से स्वयं को बचा लेगा ।

          अपने ही विचारों का मन्थन करते रहने पर दूसरा लाभ यह होगा कि मनुष्य उपयोगी सकारात्मक विचारों तथा अनुपयोगी नकारात्मक विचारों को पृथक् - पृथक् देखने में समर्थ होने लगेगा । इसका परिणाम यह होगा कि वह उपयोगी सकारात्मक विचारों को ही अपने भीतर ग्रहण करके अनुपयोगी नकारात्मक विचारों को बाहर ही छोड देगा । स्वयं को शरीर मात्र मानकर उत्पन्न होने वाले क्रोध, घृणा, राग, द्वेष प्रभृति विचार नकारात्मक कहलाते हैं तथा इसके विपरीत सबके प्रति आत्मभाव रखकर उत्पन्न होने वाले प्रेम, समता, शान्ति आदि विचार सकारात्मक कहे जाते हैं ।

          प्रतिपल उठने वाले अपने समस्त विचारों को ध्यानपूर्वक देखते रहने से तीसरा लाभ यह होगा कि मनुष्य अपनी अच्छाइयों तथा कमजोरियों दोनों को बहुत स्पष्टतापूर्वक देखने में समर्थ होने लगेगा । इसे ही कथा में यह कहकर इंगित किया गया है कि भगवान् ने देवों में देवशक्ति रूप से और असुरों में असुरशक्ति रूप से प्रवेश किया ।

          चौथा लाभ यह होगा कि विचारों के निरन्तर मन्थन से मनुष्य का यह प्रबल भाव कि 'मैं देह हूं' प्रसुप्त हो जाएगा । देहभाव अथवा देहाभिमान के जाग्रत रहने से ही परस्पर सम्बन्धों में व्यवहार करते समय मनुष्य हर समय चोट खाता रहता है, उसके अहंकार को चोट पहुंचती रहती है । परन्तु देहाभिमान के प्रसुप्त होने से अब वह उस देहाभिमान से होने वाली चोट से बचा रहेगा । यहां यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि विचार मन्थन के इस स्तर पर देहाभिमान केवल प्रसुप्त होगा, मूल से विनष्ट नहीं होगा । इसलिए कथा में कहा गया है कि भगवान् ने वासुकि नाग में निद्रा रूप से प्रवेश किया, जिससे उसे रगड से चोट न पहुंचे ।

          इस प्रकार प्रारम्भिक स्तर पर किया गया विचार मन्थन का यह प्रयास मनुष्य को उपर्युक्त वर्णित चार प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न करेगा और आत्मस्वरूपता(मन्दराचल) को भी स्थिरता प्रदान करेगा । दूसरे स्तर पर किए गए विचार मन्थन से मनुष्य के देहाभिमानी जीवन से अनेक प्रकार की अशुद्धताएं निकलकर बाहर हो जाएंगी जिन्हें कथा में वासुकि नाग के मुंह से निकला हुआ विष का धुआं कहा गया है । अब उसे ज्ञात हो जाता है कि मैं आत्मा ही जब संकल्प करता हूं तब मन कहलाता हूं और मन से निर्मित हुआ प्रत्येक विचार मेरी अपनी ही रचना है । अब मेरे अपने अधिकार में है कि मैं कैसे विचारों का निर्माण करूं । मेरे ही विचार भावों का निर्माण करते हैं, भाव दृष्टिकोण को बनाते हैं, दृष्टिकोण के आधार पर कर्म होता है, कर्म की बार - बार आवृत्ति आदत में बदल जाती है, आदत से दृष्टि(perception) निर्मित होती है और दृष्टि के अनुसार ही जीवन में सुख अथवा दुःख के रूप में भाग्य का निर्माण होता है । इस ज्ञान से मनुष्य के भीतर विद्यमान सारा क्या, क्यों, कैसे रूप अज्ञान निकल जाता है और उससे मनुष्य की सकारात्मक शक्तियां शान्त एवं पुष्ट होती हैं । इसे ही कथा में वासुकि नाग के मुंह से निकले विषयुक्त धुएं से पहले तो देवों का त्रस्त होना परन्तु बाद में शीतलता को प्राप्त होना कहकर इंगित किया गया है ।

          तीसरे स्तर पर किया गया विचार मन्थन मनुष्य की सम्पूर्ण विचार शृङ्खला में से ही देहभाव रूपी अज्ञान विष को निकाल देता है जिसे कथा में कालकूट और हालाहल कहकर सम्बोधित किया गया है । कालकूट(काल + कूट) का अर्थ है - आत्मविस्मृति के कारण उत्पन्न हुआ वह अज्ञान जो समय के साथ - साथ ढेर के रूप में एकत्र हो जाता है तथा हालाहल(हाला + हल) का अर्थ है - वह अज्ञान जो मदिरा के समान मनुष्य को मूर्च्छित करता है । यहां एक तथ्य विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि तीसरे स्तर पर किया गया विचारों का मन्थन मनुष्य की मनोबौद्धिक क्षमताओं से परे ईश्वरीय सहायता से ही सम्पन्न होता है । इसलिए इसे कथा में अजित भगवान् द्वारा निष्पन्न होते बतलाया गया है ।

          कथा में कहा गया है कि मन्थन करने पर जो विष बाहर निकला, उससे समस्त प्रजा एवं प्रजापति अत्यन्त पीडित हुए %